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खण्डहरोंका वैभव तोरण भी पर्याप्त मिले हैं। लाल पत्थर पानीसे खराब हो जाता है, प्रक्षालकी सुविधाके लिए कलाकारोंने मूर्ति निर्माणमें कैमोरका भूरा और चिक्कण पत्थर व्यवहृत किया है। __ प्रसंगतः सूचित करना आवश्यक जान पड़ता है, कि जिस प्रकार कलचुरियोंके समयमें महाकोसलके भू-भागमें उत्तमोत्तम जैनकलाकृतियोंका सृजन हो रहा था, उसी समय-जेजाकभुक्ति-बुंदेलखण्डमें चंदेलोंके शासनमें भी जैनकला विकासकी चोटीपर थी। आजकी शासन-सुविधाके लिए जो भेद सरकारने किये हैं, इससे महाकोसल और बुन्देलखंड भले ही पृथक् प्रदेश अँचते हों, परन्तु जहाँतक संस्कृति और सभ्यताका सवाल है, दोनोंमें बहुत ही सामान्य अन्तर है, यानी जबलपुर और सागर ज़िले तो एक प्रकारसे सभी दृष्टि से बुन्देलखंडी ही हैं । सामोप्यके कारण कलात्मक आदानप्रदान भी खूब ही हुआ है। मुझे बुन्देलखंडमें बिखरे हुए कुछेक जैनावशेषोंके निरीक्षणका अवकाश मिला है, मेरा तो इस परसे यह मत और भी दृढ़ हो जाता है कि कलाके उपकरण और अलंकरण तथा निर्माणशैली-दोनोंमें साधारण अन्तर है । अधिक अवशेष, दोनों प्रदेशोंमें एक ही शताब्दीमें विकसित कलाके भव्य प्रतीक हैं। बुन्देलखंडके जैन-अवशेषोंका बहुत बड़ा भाग तो, वहाँ के शासकोंकी अज्ञानताके कारण, बाहर चला गया, परन्तु महाकोसलके अवशेष भी बहुत कालतक बच सकेंगे या नहीं, यह एक प्रश्न है । दुर्भाग्यसे इतिहास और कलाके प्रति अभिरुचि रखनेवाले कुछेक व्यक्ति, जिसमें जैन भी सम्मिलित हैं, सीमापर हैं, जो इन पवित्र अवशेषोंको दूसरे प्रान्तोंमें विक्रय किया करते हैं। यह घृणित कार्य है । वे अपनी संस्कृतिके साथ महा अन्याय कर रहे हैं। इस ओर शासनका मौन खेद व आश्चर्यजनक है।
स्थापत्य
यहाँपर पाये जानेवाले जैन-अवशेषोंको दो भागोंमें, अध्ययनकी सुविधा
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