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खण्डहरोंका वैभव
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है, वह भी इसलिए कि उसमें जैन मूर्ति रह गई है । यदि प्रतिमा न रहती तो इस जैन- प्रासादका कभीका रूपान्तर हो चुका होता । इस मन्दिरकी आयु भी उतनी नहीं है कि जो उपर्युक्त विशृंखलित परम्पराकी एक कड़ी भी बन सके । तात्पर्य कि यह १० वीं शती के पूर्वका नहीं है । यहाँपर जैन- अवशेष प्रचुर परिमाण में बिखरे पड़े हैं । परन्तु जैन तीर्थमाला या किसी भी ऐतिहासिक ग्रंथमें आरंगकी चर्चा तक नहीं है । हाँ, ६ शती पूर्व वहाँ जैन संस्कृतिका प्रभाव अधिक था, पुष्टि स्वरूप अवशेष तो हैं ही। एक और भी प्रमाण उपलब्ध है । यह वह कि आरंगसे श्रीपुरसिरपुर जंगली रास्तेसे समीप पड़ता है। वहाँपर भी जैन - अवशेष बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं । इनकी आयु भी मंदिरकी आयुसे कम नहीं है । ६ वीं शताब्दीकी एक धातु मूर्ति भगवान् ऋषभदेव - मुझे यहीं से प्राप्त हुई थी । श्रीपुर इतः पूर्व बौद्ध संस्कृतिका केन्द्र था । मुझे ऐसा लगता है जहाँ बौद्ध लोग फैले वहाँ जैन भी पहुँच गये । यह पंक्ति महाकोसलको लक्ष्य करके ही लिख रहा हूँ । आरंगके मंदिरको देखकर रायबहादुर डा० हीरालालजीने कल्पना की है कि यहाँपर महामेघवाहन खारवेल के वंशजोंका राज्य रहा होगा । इससे फलित होता है कि ६ वीं शताब्दीतक तो जैनसंस्कृतिका इतिहास मिलता है, जो निर्विवाद है । परन्तु भित्तचित्र से लगाकर ८वीं सदी के इतिहास साधन नहीं मिलते। भारतीय इतिहासके गुप्तकाल में महाकोसल काफ़ी ख्याति अर्जित कर चुका था । इलाहाबादका लेख और एरणके अवशेष इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।
उपलब्ध शिल्पकलाके आधारपर निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ८ और ६ वीं शताब्दीसे जैन शिल्पकलाका इतिहास प्रारम्भ होता है । गुफाचित्रोंसे लगाकर आठवीं शतीतंकका भाग अन्धकारपूर्ण है । इसका कारण भी केवल उचित अन्वेषणका अभाव ही जान पड़ता है ।
कलचुरियोंके समय जैनाश्रित शिल्प स्थापत्य कलाका अच्छा विकास हुआ। वे शैव होते हुए भी परमतसहिष्णु थे । जैनधर्मको विशेष आदरकी
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