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खण्डहरोंका वैभव की प्रतिमाएँ उत्कीर्णित हैं, जिनका सम्बन्ध शायद दिगम्बर-सम्प्रदायसे है। उनमें आभूषणोंका बाहुल्य है। इसका प्रधान कारण कलचुरिकलाका असर जान पड़ता है। मन्दिरके गर्भगृहमें तीन दिगम्बर जैनमूर्तियाँ हरापन लिये हुए श्याम पाषाणपर उत्कीर्णित हैं । कलाकी दृष्टिसे मूर्तियोंसे भी बढ़कर परिकर सुन्दर है। इस मन्दिरके निर्माण-कालके विषयमें वहाँपर कोई लेख उत्कीर्णित न होनेसे निश्चित समय स्थिर करना ज़रा कठिन है, कलाके आधारपर ही समय निर्धारित करना होगा। मध्यप्रान्तके छत्तीसगढ़-डिवीज़नमें रत्नपुरके पास पाली नामक एक ग्राम है, जहाँका शिव-मन्दिर प्रान्तमें प्राचीनतम माना जाता है । इसका नक्काशीका काम आबूकी याद दिलाता है। इस मन्दिरका निर्माण बाण-वंशीय राजा विक्रमादित्यने सन् ८७०-८६५के बीच कराया और कलचुरिवंशीय जाजल्लदेव ( राज्यकाल १०६५-११२०) ने जीर्णोद्धार कराया, जैसा कि 'जाजल्लदेवस्य कीर्तिरियम्' वाक्यसे प्रकट होता है, जो वहाँके मन्दिरके स्तम्भोंपर उत्कीर्णित है। आरंगका जैन-मन्दिर ठीक इससे सौ या कुछ अधिक वर्ष बाद बनवाया गया मालूम देता है, क्योंकि इसमें शैव मन्दिरकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म कोरणीका अनुकरण किया गया है । इससे सिद्ध है कि आरंगका जैन-मन्दिर ११ वीं शतीके उत्तरार्द्ध में बना होगा। ____महामायाके प्राचीन मन्दिर में, जो सघन वनमें है, एकाधिक जैनमूर्तियाँ अवस्थित हैं । एक पाषाणको विशाल चट्टानपर चौबीस तीर्थंकरोंकी एक साथ चौबीस मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं । यह चतुर्विंशतिपट्ट महामायाके मूलमन्दिरमें सुरक्षित और अखण्डित है । आरंगसे दो मील दूर एक जलाशयपर कुछ ऐतिहासिक खण्डहरोंका हमें पता लगा था। पर परिस्थितिकी प्रतिकूलतावश वहाँ जाना न हो सका। एक केवटको भी रत्नोंकी मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं, जो रायपुरके दिगम्बर जैनमन्दिर में सुरक्षित हैं । कहा जाता है कि किसी समय यह नगर जैन-संस्कृतिका प्रधान केन्द्र था । प्रान्तके प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डा. हीरालालने 'मध्य
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