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खण्डहरोंका वैभव
ही आकर्षक है । मूल स्थानपर भगवान्की प्रतिमा उलटे कमलपुष्पासनपर विराजित है, जिसके चारों ओर गोल कंगूरे स्पष्ट हैं । मस्तकपर जटा सा केशगुच्छक अलंकृत है । पश्चात् भागमें प्रभावली ( भामण्डल ) है, जिसे गुप्तकालीन कलाका आंशिक प्रतीक माना जा सकता है।
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प्रतिमा के निम्न भाग में आठ लघु प्रतिमाएँ, विविध प्रकार के आयुधों से सुसज्जित हैं । बाजू में उच्चासनपर एक प्रतिमा बनी हुई है । यहाँपर स्मरण रखना चाहिए कि 'वास्तुसार प्रकरण' में राहु व केतुको एक ही ग्रह माना गया है । बड़ी उदरवाली प्रतिमा देखने में कुबेर-तुल्य लगती है; पर वस्तुतः है वह यक्षराज की, जैसा कि तत्कालीन जैन- शिल्पोंसे विदित होता है । यद्यपि इस मूर्तिका निर्माण-काल-सूचक कोई लेख उत्कीर्णित नहीं; पर अनुमानतः यह ६ वीं शताब्दीकी होनी चाहिए। इस प्रतिमाकी कलासे भी उत्कृष्ट कलात्मक बौद्ध और सनातनधर्मान्तर्गत सूर्य आदिकी मूर्त्तिय इसी नगर में प्राप्त हुई हैं, जिनपर पौनार तथा भद्रावती में प्राप्त अवशेषोंकी कलाका आंशिक प्रभाव है । उस समय मध्य - प्रान्त में बौद्धाश्रित कलाका प्रचार था । जहाँपर जिस कला - शैलीका विकास हो, वहाँ के सभी सम्प्रदाय उक्त कलासे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते । इसीका उदाहरण प्रस्तुत प्रतिमा है । बौद्ध तत्त्वज्ञोंने इसे तत्त्वज्ञानका रूप देकर कलामें समाविष्ट किया है । कहना न होगा कि ८ वीं सदी में यह रूप सार्वत्रिक था । इस प्रतिमाका महत्त्व इसलिए भी है कि प्रान्तके किसी भी भू-भागमें इस प्रकार की जैन प्रतिमा उपलब्ध नहीं हुई है ।
इस प्रतिमाकी प्राप्तिका इतिहास भी मनोरंजक है । यद्यपि हमें यह सिरपुरस्थ गन्धेश्वर महादेव मठके महन्त मंगल गिरिजीसे प्राप्त हुई है; पर वे बताते हैं कि भीखमदास नामक पुजारीको कहीं खोदते समय बहुसंख्यक कलापूर्ण बौद्धप्रतिमाएँ एक विस्तृत पिटारे में प्रात हुई थीं ।
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