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खण्डहरोंका वैभव श्रीपुर अथवा सिरपुरके अध्ययनके बिना मध्य-प्रान्तके पुरातत्त्वका अध्ययन सर्वथा अपूर्ण रहेगा। यहाँका गन्धेश्वर महादेवका मन्दिर प्राचीन माना जाता है । अर्वाचीन काल में भी वहाँको अवस्था और व्यवस्था बड़ी सुन्दर है । इसमें सिरपुरके त्रुटित अवशेष लाकर, बड़े यत्नके साथ रखे गये हैं। मन्दिरके मुख्य द्वारके समक्ष विशालस्तम्भोपरि चार दिगम्बर जैन-प्रतिमाएँ उत्कीर्णित हैं, जो खड्गासनस्थ हैं । प्रस्तुत स्तम्भपर जो लेख खुदा है, वह इस प्रकार है-"सं० ११६६ वैशाख सा... समथर धारू तत् भार्या रूपी सपरिवार युतेन धर्मनाथ चतुर्मुख' नित्यं प्रणमंति ।" इस स्तम्भसे मालूम होता है कि ऊपरके भागमें भी मूर्तियाँ थीं, जिनका चरण-भाग स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । मूर्तिकी सुन्दरताके लिए, इतना ही कथन पर्याप्त होगा कि उसके मुख-कमलसे जो वीतराग भाव प्रस्फुटित होता है, शान्तिका वैसा प्रवाह अन्यत्र कम ही देखने में आता है । लक्ष्मण देवालयके पास एक छोटा-सा अजायबघर-सा किसी समय बना था। पर आज वह अतीव दुरअवस्थामें है। ऊपरकी छत टूट गई है । उसमें अनेक प्रतिमाएँ, स्तम्भ व शिखरके त्रुटित भाग पड़े हैं। इनमेंसे एक साढ़े चार फुट ऊँची पद्मासनस्थ विशाल प्रतिमा है । एक स्तम्भपर अष्टमंगल उत्कीर्णित हैं।
एक महत्त्वपूर्ण धातु-प्रतिमा
यों तो प्रान्तमें अनेक स्थानोंपर प्राचीन धातु-प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं (जिनका सामूहिक निर्माण-काल विक्रमकी बारहवीं शतीसे प्रारम्भ होता है); परन्तु यहाँपर जिस मूर्ति के विषयमें पुरातत्त्व-प्रेमियोंका ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है, वह कलाकी दृष्टि से अपना अलग ही स्थान रखती है । इसकी रचना-शैली स्वतन्त्र, स्वच्छ और उत्कृष्ट कलाभिव्यक्तिकी परिचायक है। मूल प्रतिमा पद्मासन लगाये है । निम्नभागमें वृषभ-चिह्न स्पष्ट है एवं स्कन्ध-प्रदेशपर अतीव सुन्दर केशावलि प्रसरित है । दोनों लक्षणोंसे
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