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मध्यप्रदेशका जैन- पुरातत्व
जैनधर्म से सम्बन्धित होनेके प्रमाण हैं । यहाँसे एक पंडेके साथ हम लोग टोन्हीबमलाईकी ओर चले । यह स्थान सापेक्षतः कुछ विकट और दुर्गम है। बिना मार्ग-दर्शक के वहाँ पहुँचना सर्वथा असंभव है । कारण कि इस ओर ले जानेवाली न तो कोई निश्चित पगडंडी है एवं न ऐसे कोई चरणचिह्न ही दिखलाई पड़ते हैं, जिनके सहारे यात्री सुगमतापूर्वक वहाँ पहुँच सके । स्थान विकट चट्टानोंके बीच पड़ता है | बड़ी-बड़ी आड़ी टेढ़ी और फिसलनेवाली चट्टानोंको पार कर जाना पड़ता है । यहाँकी बमलाई की पूजा केवल नवरात्रके दिनों होती है । बली भी खूब जमकर होती है, पाठकों को पढ़कर आश्चर्य होगा कि आज के युग में भी यहाँ पूजाके दिनों में एक बकरेका जीवित बच्चा ज़मीनमें गाड़ा जाता है।
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उपर्युक्त जर्जरित टोन्ही बमलाई के स्थान में ही सिन्दूर से पोती हुई भगवान् पार्श्वनाथ स्वामीकी एक प्रतिमा विराजमान है, कलाकी दृष्टि से अति सामान्य है । ठीक इस स्थानके कुछ दूर जानेपर बहुसंख्यक अवशेष घनी झाड़ी में फैले हुए हैं। तीन स्तम्भ छः फुटसे भी अधिक लंबे व ढाई फुट से अधिक चौड़े हैं, जो नीचेसे चतुष्कोण कुछ ऊपर षट्कोण एवं मध्य में अष्ट कोण में विभाजित हैं । सर्वोच्च भागमें दोनों ओर सुन्दर डिज़ाइन व एक भागमें खड्गासन में जिनमूर्तियाँ खुदी हुई हैं, जो नग्न हैं। पास में पड़े हुए चौखटके मध्यभागमें उत्कीर्णित कलशाकृति इस बात की सूचना देती है कि असंभव नहीं ये सभी अवशेष ध्वस्त जैनमंदिर के ही हों । इन सब अवशेषोंको देखते हुए करीब बारह बजने का समय हो रहा था; अतः हम लोग तपसीताल नामक स्थानको सामान्य रूपसे देखकर ही स्वनिवासस्थानको लौटना चाहते थे; पर वहाँ सुयोग्य वैष्णव महंत श्री मथुरादासजी ने पहाड़ीके दुर्गम गन्तव्य स्थानोंकी चर्चा की। उन्हें दुपहर के बाद हमने देखना तय किया ।
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