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मध्यप्रदेशका जैन-पुरातत्त्व
को थोड़ी देरके लिए मान लिया जाय तो कलचुरि या उसके बादके भोंसले आदि शासक इसका जीर्णोद्धार कराये बिना न रहते, जैसा कि रत्नपुर व श्रीपुर-सीरपुरके शैवमन्दिरोंका कराया था। __ अब प्रश्न रह जाता है गणिका द्वारा निर्मापित मन्दिर एवं मूर्तियोंका। यह प्रश्न जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना कठिन भी, पर उपेक्षणीय नहीं । इसे सुलझानेका न कोई साहित्यिक प्रमाण है न शिलालिपि ही, केवल प्रतिमा एवं मन्दिर-अवशेषोंकी रचनाशैलोके आधारपर ही कुछ प्रकाश पड़ सकता है । जो दो मूर्तियाँ विभिन्न स्थानोंपर विराजमान कर दी गई हैं, उनकी रचनाशैलीमें पर्याप्त साम्य है। भले ही बे दोनों विभिन्न कलाकारोंकी कृति ज्ञात होती हों, पर टेकनिक एक है, पाषाण एक है । स्तम्भों एवं मन्दिरके गवाक्षोंमें खचित आकृतियोंपर कलचुरि कलाका प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है; बल्कि कहना चाहिए कि स्थपतिने अपने पूर्वजों द्वारा व्यवहृत शैलीको सुरक्षित रखनेका साधारण प्रयास किया है, पर सफलता नहीं मिली। जिन्होंने कलचुरिकलाके प्रधान केन्द्र त्रिपुरी और बिलहरीकी गृह-निर्माण-कला एवं उनके विभिन्न उपकरणोंका अध्ययन किया है, वे ही उपर्युक्त अवशेषोंकी अनुकरण-शैलीको समझ सकते हैं । मन्दिरोंके चौखट विन्ध्यप्रदेश के सुन्दर बनते थे। कलचुरि कलाकारोंने कुछ परिवर्तनके साथ इस शैलीको अपनाया । उसी शैलीका साधारण अनुकरण दक्षिण-कोसल-छत्तीसगढ़में किया गया । ऐसी स्थितिमें उत्तर भारतीय द्वार-निर्माण-शैलीका प्रभाव बना रहना स्वाभाविक
___ डोंगरगढ़की पहाड़ीके अवशेषोंको मैं कलचुरि कालमें नहीं रखना चाहता, कारण कि उपासक, उपासिका तथा पार्श्वदोंके तनपर पड़े हुए वस्त्रोंपर गोंड प्रभाव स्पष्ट हैं । आभूषण भी गोंड और कलचुरि कलामें व्यवहृत अलंकारोंसे कुछ मेल रखते हैं। ओठ भी मोटे हैं, मस्तकके बाल कुछ लम्बे बँधे हुए हैं, इन सब बातोंसे यह ज्ञात होता है कि इसकी रचना
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