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खण्डहरोंका वैभव
सम्प्रदायका देवायतन होता था, उसपर उस धर्म के विशेष प्रसंग या देवदेवियोंका अंकन रहता था । जैसलमेर, राणकपुर, गिरनार, अहमदाबाद, शत्रुंजय, पाटण, खँभायत, आरंग, श्रवणबेलगोला, खजुराहो, देवगढ़, हलेबीड़े,
बू, कुंभारियाजी आदि स्थानोंके मन्दिरोंको जिन्होंने विशुद्ध कलाकी दृष्टिसे देखा है, वे इन पंक्तियों का अनुभव कर सकते हैं । बाह्यभागों में भीट, जगती, अन्तरपत्र, ग्रासपट्टी, नरथर, हंसथर, अश्वथर, गजथर, सिंहथरकी खुदाईपर विशेष ध्यान दिया जाता था ये भारतीय शिल्पकला और जनजीवन के इतिहासकी अनुपम सामग्री हैं। इनकी कोरनी, सूक्ष्मकल्पना और उदात्त भावना प्रत्येकको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है 1
शत्रुंजयका पहाड़ तो मन्दिरोंका नगर ही कहा जाता है । भिन्न-भिन्न शताब्दियोंकी शिल्प-कलाके उत्कृष्ट प्रतीक ग्राज भी वहाँ सुरक्षित हैं । पश्चिम कुछेक मन्दिरोंपर एक बंगाली विद्वान् ने लिखा है
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"The Jainas choose wooded mountains and the most lovely retreats of nature for their Places of Pilgrimage and cover them with exquisitely carved shrines in white marble or dazzling stucco. Their contribution to Indian Art is of the greatest importance and India is indebted for a number of its most beautiful architectural monuments such as the splendid temples of Abu, Girnar and S'atrunjaya in Gujrat.'"'
मन्दिरका भीतरी भाग इन उपभागों में विभक्त रहता है-द्वारमंडप 'शृंगारचौकी', 'नवचौकी', 'गूढमंडप', 'कोलीमंडप' और 'गर्भगृह', जहाँ पर मूर्ति स्थापित की जाती हैं। गर्भगृह और गूढ़मंड पर क्रमशः शिखर एवं
""डॉन" जुलाई १६०६ ॥
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