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जैन- पुरातत्त्व
जैन- संस्कृतिका सार्वभौमिक महत्त्व इन्हीं लेखोंके गंभीर अनुशीलनपर निर्भर है । स्थूल रूपसे उपलब्ध लेखों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है :--
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१ शिलोत्कीर्ण लेख
२ प्रतिमापर खुदे लेख
सापेक्षतः प्रथम भागके प्राचीन लेख कम मिलते हैं । पुरातन शिलालिपि में सर्वप्रथम ज़िक्र उस लेखका श्राता है जो वीर नि०सं० ८४ में लिखा गया था' । महामेघवाहन खारवेलका लेख भी जैन इतिहासपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है । उदयगिरि- खंडगिरि में और भी प्राकृत लेख उपलब्ध हुए हैं, जिनका सामूहिक प्रकाशन पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने किया है । मथुरा के जैनलेख तो हमारी मूल्य सम्पत्ति हैं । डा० जाकोबीने इन्हींके आधारपर जैनागमोंकी प्राचीनता स्वीकार की है। भाषाविज्ञान, इतिहास और समाजविज्ञानकी दृष्टिसे भी इनका विशेष महत्त्व है । पर अद्यावधि इनपर जितना भी कार्य हुआ है, वह आंग्लभाषा में है और थोड़ा भ्रमपूर्ण भी । कलकत्ता के स्व० बाबू पूर्णचन्दजी नाहरने इनका पुनर्निरीक्षण किया था, तथा स्मिथकी भूलोंको परिष्कृत कर, समस्त लेखों के पाठोंको शुद्ध किया था, पर उनके आकस्मिक निधनसे महान कार्य स्थगित हो गया । जैन साहित्य में मथुराविषयक जहाँ-कहीं भी उल्लेख आया है, उन सभीको आपने एकत्र कर, महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित कर रखी थी ।
-स्व० काशीप्रसाद जायसवालने उसे यों पढ़ा हैविराय भगवत "८४ चतुरासितिवसे .. जाये सालिम्मलिनिये रं निविथ माझिसि के || भारतका सर्वप्राचीन संवत् सूचक लेख है । इस लेख से स्पष्ट है कि उन दिनों राजस्थान में भगवान् के भक्त विद्यमान थे ।
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