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खण्डहरोंका वैभव
साह लखमण... चैत्यालयोद्धरणधीरेण निजभुजोपार्जितवित्तानुसारे महायात्रा प्रतिष्ठा तीर्थ चेत्र
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प्राचीन दिगंबर जैन - साहित्य में कारंजाका स्थान अत्यंत उच्च है । सत्रहवीं सदी में आर्थिक दृष्टिसे बरार में कारंजाका स्थान प्रधान माना जाता था । उपर्युक्त प्रतिमा-लेखसे स्पष्ट है कि उस समय बड़े-बड़े विद्वान् वहाँपर निवास करते थे । भट्टारक विश्वसोमसेन उस समय के जैनसमाजमें काफ़ी प्रसिद्ध व्यक्ति मालूम पड़ते हैं, क्योंकि उनकी प्रतिष्ठा के दो लेख नागराकी दिगम्बर जैन - मूर्तियोंपर उत्कीर्णित हैं। संभव है, उस समय उनका आगमन वहाँपर हुआ हो; क्योंकि उन्होंने १०८ प्रतिष्ठाएँ भिन्नभिन्न स्थानोंपर करवाई थीं । आपके ऐतिहासिक जोवन पटपर प्रकाश डालनेवाली 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' और करकण्डु चरित्र'की हस्तलिखित प्रतियोंकी पुष्पिकाएँ हमारे संग्रह में हैं। प्रशस्तिसे मालूम होता है कि आप प्रतिभासंपन्न ग्रन्थकार भी थे । आपने स्वामी कुंदकुन्दाचार्य - विरचित 'समय सार' पर वृत्ति एवं 'अमरकोष' की हिन्दीमें टीकाएँ की थीं ।
आरबीके सैतवालोंके जैन - मन्दिर में एक अत्यन्त कलापूर्ण और मध्य कालीन धातु प्रतिमा अवस्थित है । समस्त प्रान्त में उपलब्ध जैन- धातु-प्रतिमाओंमें इसका बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसकी कला अपने ढंगकी और सर्वथा स्वतन्त्र होते हुए भी चित्ताकर्षक ही नहीं, विचारोत्तेजक भी है। मूल प्रतिमा अर्द्ध पद्मासन लगाये, कमलासन- स्थित है । पश्चात् भागमें स्पष्टरूपेण तकिया बनाया गया है। जैन - मूर्ति में तकियेका होना एक आश्चर्य है, क्योंकि इसप्रकार के उपकरण के उल्लेख एवं उदाहरण हमारे देखने में नहीं आये । बौद्धों में इसकी प्रथा थी । मूर्तिका मुखमंडल सुन्दर एवं सजीवताका 1 परिचायक है । स्कन्ध- प्रदेश एवं शरीर - विन्यास तो उत्तम कलाकारकी कलाके शुद्धतम भावोंका ही ज्वलन्त प्रतीक है । कलाकारका हृदय और मस्तिष्क दोनों ही इस अनुपम कृतिके निर्माण में पूर्णतः संलग्न थे ।
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