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खण्डहरोंका वैभव बसाई । जबलपुर में जैनोंके उभय सम्प्रदायोंके पर्याप्त मन्दिर हैं, जिनमें अनेक कलापूर्ण जैन-प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं। प्रान्तीय खण्डहरोंमें उपलब्ध सभी प्रतिमाओंमें हनुमानताल दिगम्बरजैन-मन्दिरमें सुरक्षित प्रतिमाका स्थान बहुत ऊँचा है। कलाको सजीवता तो प्रतिमाके अङ्ग-प्रत्यंग पर वाशरूपेण अंकित है । यह प्रतिमा एक बन्द कमरेमें रखी हुई पद्मासनपर विराजमान है । इसकी लम्बाई-चौड़ाई ७४४॥ फीट है। स्वाभाविक उत्फुल्ल बदनपर अपूर्व शान्ति, प्रभा, कोमलता और महान् गम्भीरताके दर्शन होते हैं। मस्तकपर केश-विन्यास तो नहीं हैं, पर तत्तुल्याकृति (धूघरवाले बाल-जैसी) आकर्षक है । लम्बे कर्ण और कलायुक्त सौन्दर्य वृद्धि करनेवाले हैं । उभय स्कन्ध केशावलिसे सुशोभित हैं।
परिकर
सापेक्षतः इसका परिकर स्वतन्त्र जैन-कलाकृतिका स्वरूप होते हुए भी, बाह्य अलंकरण बौद्ध परिकरमें व्यवहृत कलासे सम्बन्ध रखते हैं। अष्टप्रतिहार्यमें भामण्डल प्रभावलिकी गणना की गई है। सामान्यतः समस्त जैन-प्रतिमाओंमें इसका रहना अनिवार्य माना गया है, परन्तु इस प्रतिमाकी प्रभावलिमें जितनी बारीकसे बारीक रेखाएँ अंकित हैं एवं जितनी पारदर्शिता परिलक्षित होती है एवं निकटवर्ती बेलबूटोंका सुकुमार अंकन पाया जाता है, निःसंदेह अद्यावधि अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं हुआ। प्रभावलिकी रेखाएँ इतनी सूक्ष्म हैं कि एक रेखापर सरलतापूर्वक छेनी नहीं चलाई जा सकती। २३।४२३से कम प्रभावलिका भाग न होगा, जितनी महत्त्वपूर्ण प्रभावलिकी कोरणी है, उतनी ही सुन्दर, आकर्षक खुदाई छत्रकी है । जैनमूर्तिमें पाये जानेवाले प्रायः ऊपरी तीन भागोंमें विभाजित रहते हैं एवं दण्डका सर्वथा अभाव रहता है, पर प्रस्तुत प्रतिमा इसका अपवाद है, कारण कि जिसप्रकार प्राचीन यक्षप्रतिमाओंमें छत्रको थामने के लिए दण्डकी अपेक्षा रहती है, ठीक उसी प्रकार यह छत्र भी है। प्रभावलिके ठीक मध्य भागमें छत्र-दण्ड है जो.
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