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खण्डहरोंका वैभव मूर्तिविज्ञान के क्रमिक विकासपर व कलचुरिकालीन मूर्तिकलाको आलोकित करनेवाले अगणित सौंदर्यपुंज सम प्रतीक तत्रस्थ खंडहर,वृक्षतल एवं सरोवर के किनारोंपर अरक्षित-उपेक्षित दशामें पड़े हैं। बेचारे कतिपय प्रतीक तो वृक्षोंकी जड़ोंमें इस प्रकार लिपट गये हैं कि उनका संकेतात्मक अस्तित्वमात्र ही रह गया है। महाकोसलकी यह राजधानी जैनपुरातन अवशेषोंकी भी राजधानी है। यहाँसे उच्चकोटिकी कलापूर्ण जैनमूर्तियाँ तो कलकत्ता वगैरह स्थानोंके म्यूजियम व जैन-मन्दिरोंमें चली गई। बहुत बड़ा भाग लढियों द्वारा पथरी व कूडियोंके रूपमें परिणत हो चुका है, कुछ अवशेष मिर्जापुरकी सड़कोंपर गिट्टियाँ बनकर बिछ चुके और पुलोंमें तो आज भी लगे हुए हैं। कुछ भाग जनताने अपनी दीवालोंको खड़ी करने में लगा दिया, या गृह-द्वार में फिट कर दिया। इस प्रकार क्रमशः जैन-अवशेषोंका त्रिपुरीमें जितना ह्रास और भ्रंश हुआ है, उतना अन्यत्र कम हुआ होगा। जब मैं त्रिपुरी पहुंचा, तब मुझे भी कतिपय जैनशिलावशेष जैसे भी प्राप्त हुए, वे महाकोसलकी जैनाश्रित मूर्तिकलाका प्रतिनिधित्व सम्यक रीत्या कर सकते हैं। इनमें-से कतिपय प्रतीकोंका परिचय 'महाकोसलका जैन पुरातत्त्व' शीर्षक निबन्धमें दे चुका हूँ। त्रिपुरीमें आज भी जैनाश्रित शिल्पकलाकी ठोस सामग्री उपलब्ध है। बालसागर सरोवर तटपर जो शैव-मन्दिर बना हुआ है, उसकी दीवालोंके बाह्य भागों में जैनचक्रेश्वरी देवीकी आधे दर्जनसे भी अधिक मूर्तियाँ लगी हुई हैं। सरोवर के बीचोंबीच जो मन्दिर है, उसमें भी कतिपय जैन-मूर्तियाँ लगी हुई हैं । खैरमाईके स्थानके पीछे, जो पुरातन वापिकाके निकट है, अवशेषोंका ढेर पड़ा है, उसमें व बड़ी खैरमाई जाते हुए मार्गमें जो थोड़ा-सा जंगल व गड़े पड़ते हैं, उनमें जैनमूर्तियाँ व ऐसे स्तम्भ पाये जाते हैं, जिनपर मीनयुगल, दर्पण, स्वस्तिक और नन्द्यावर्त आदि चिह्न उत्कीर्णित हैं। यहाँसे हमें जितना भी जैनाश्रित शिल्पकलाकी सामग्री उपलब्ध हुई हैं, उनपरसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि किसी समय त्रिपुरीमें न केवल जैनोंका
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