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मध्यप्रदेशका जैन-पुरातत्त्व
१७३ ही निवास रहा होगा, अपितु कहीं श्रमणसंस्कृतिके केन्द्र के सौभाग्यसे भी मंडित रहा होगा। बहुरीबन्द ___ जबलपुरसे उत्तर ४२ मीलपर यह ग्राम है । कनिंघम इसे 'टोलेमीका थोलावन' मानते हैं। पुरातत्त्वज्ञोंके लिए यहाँ भी पर्याप्त सामग्री, वहुत ही उपेक्षित दशामें पड़ी हुई है। पर हमें तो यहाँ “खनुवादेव” का ही उल्लेख करना है। पाठक आश्चर्यमें पड़ेंगे कि "खनुवादेव" क्या बला है ? वस्तुतः यह भगवान् शान्तिनाथकी प्रतिमा है । इसकी ऊँचाई १३ फीट है । पाषाण श्याम है । इसके नीचेवाले भागमें एक लेख खुदा है । इसकी लिपि बारहवीं सदीकी जान पड़ती है । जो लेख है उसका सारांरा यह निकलता है- “महासामन्ताधिपति “गोल्हणदेव" ( राष्ट्रकूट) राठौर के समय में बनी, जो कलचुरि राजा गयकर्णदेवके अधीन वहाँका शासक था। यह मूर्तिकलाकी दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। परन्तु इस ओर जैन और हिन्दू दोनों उपेक्षित वृत्तिसे काम ले रहे हैं । हिन्दू लोग इसकी पूजा जूतोंसे करते हैं। उनका विश्वास है कि जूतोंके डरसे देव हमारी सुविधाओंका पूगपूरा ध्यान रखेगा । जैनोंने कुछ समय पूर्व इसे प्राप्त करने के लिए आन्दोलन भी किया था, पर पाना तो रहा दूर, वहाँपर व्यवस्थातक न हो सकी, न आशातना ही मिटा सके । आश्चर्य तो इस बातका है कि पुरातत्त्व विभागके उच्च कर्मचारियोंका पुनः-पुनः ध्यान आकृष्ट करने के बाद भी वे किसी भी प्रकारकी समुचित कार्यवाही न कर सके । स्वाधीन भारतमें इस प्रकारकी अपमानजनक पूजा पद्धति पर, शासनका पूर्णतया मौन बहुत अखरता है।
बहुरीबंदसे १।। मीलपर "तिरवाँ" पड़ता है । यहाँ के पुरातन मंदिरकी दीवालपर भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति उत्कीर्णित है ।२
'प्रोग्रेस रिपोर्ट ( कजिन्सकी ) भा० ४. और आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोर्ट भा० ४।
जबलपुर-ज्योति, पृ० १४०,
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