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खण्डहरोंका वैभव
सफलतापूर्वक करते रहे हैं । इस प्रतिमा निम्न भागमें दो यक्षोंके मस्तकपर भी किरीट मुकुट हैं। ये अभीतक पाये जानेवाले मुकुटोंमें, निर्माणको दृष्टि से एवं सूक्ष्म रेखाओंके लिहाज़से अनुपम हैं। यक्ष एवं परिचारकोंके मुकुट एवं मुख-मुद्राकी भाव-भंगिमा जिस रूपमें व्यक्त की गई है, उसे देखकर तो यही मानना पड़ता है कि इसके कलाकारोंने अजन्ताकी रेखाओंसे प्रेरणा लेकर इस सफल कृतिका निर्माण किया। तत्कालीन पाये जानेवाले बौद्ध शिल्पावशेषोंसे ये कल्पना सहज ही समझमें आती है कि उन दिनों बौद्धोंका शिल्प-कलामें प्रभुत्व था, ऐसी स्थितिमें अजन्ता या गुप्तकालीन मूर्ति और चित्रकलाको रेखाओंका विस्मरण कैसे हो सकता था। परिचारकोंमें भी बौद्ध प्रभाव स्पष्ट है। दाँयें-बाँयें हाथों में कमल-दण्ड लिपटे हुए हैं । जैन मूर्तियोंमें यह रूप कम मिलता है, बौद्धोंमें अधिक । सिरपुरको धातु मूर्तियाँ इसके उदाहरण स्वरूप रखी जा सकती हैं । निःसंदेह परिचारकोंके अंकनमें जो स्वाभाविकता एवं सजगता है, वह अन्यत्र कम ही मिलती है । दायें परिचारकके बायें हाथका अधखिला कमल, पकड़नेवाली मूर्तियाँ कितनी स्वाभाविक हैं, शब्दोंका काम नहीं, नेत्रों द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। परिचारकके नीचे उभय ओर नारी खड़ी हुई है। हाथमें माला तो है ही, परन्तु कोहनीतक फूल रखनेकी टोकनी पहुँच गई है । नारीपर अधिक आभूषण लादकर सम्भ्रान्त परिवारकी अपेक्षा वह जनताकी प्रतिनिधित्री लगती हैं।
महाकोसलकी मूर्तियोंके पृष्ठभागमें प्रायः साँचीके तोरणका अनुसरण करनेवाले Horizontal pillars मिलते हैं, परन्तु प्रस्तुत प्रतिमाका निर्माता केवल कोरा कलाकार न होकर जैन-प्रतिमा-विधानको सूक्ष्म बातोंका ज्ञाता भी जान पड़ता है। उसने दोनों ओर दो स्तम्भ तो ज़रूर खुदवाये, पर दोनोंकी मिलानेवालो मध्यवर्ती पट्टिका न बनने दी। कारण कि वह स्थान प्रभावलिसे व्याप्त है। मूल प्रतिमाके निम्न भागमें आकृतियाँ खिंची हुई हैं। यद्यपि इसका निर्माणकाल वर्णमालाके अक्षरों में
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