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मध्यप्रदेशका जैन- पुरातत्त्व
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ऊपर जाकर क्रमशः तीन ओर गोलाईको लिये हुए है । छत्रमें यक्ष छत्रोंके समान इसप्रकार सूक्ष्म खनन किया गया है कि बाढ़में हो ही नहीं सकता । छत्रके मध्य भागमें कमल कर्णिकाएँ हैं । तदुपरि विशाल छत्र Squire पौने तीन फीटसे कम न होगा । सामान्यतः जैन- मूर्तियों में पाये जानेवाले छत्रोंकी अपेक्षा कुछ बैभिन्न्य है जैसे यक्ष- मूर्तियों में विवर्तित छत्रों में अग्रभागके मुक्ताकी लड़ें अर्धगोलाकार रहती हैं वैसा ही कन यहाँ है । तदुपरि सिकुड़नको लिये हुए वस्त्रकी झालरके समान रेखाएँ हैं, तदुपरि प्रभावलिमें विवर्तित बेलबूटोंसे भिन्न श्राकृतियाँ खचित हैं । तदुपरि उल्टी अर्थात् घंटाकृति सूचक कमल-कर्णिकाएँ हैं । सर्वोच्च भागमें दो हाथी सूंड़ मिलाये हुए उभय ओर इस प्रकार उत्कीर्णित हैं, मानो वे छत्रको थामे हुए हैं । कानके उठे हुए भाग, गलेकी तनी हुई रेखाएँ एवं आँखोंके ऊपरके चमड़ेका खिंचाव इस बात के द्योतक हैं कि वे अपने कर्तव्य पालन में उत्सुकतापूर्वक नियुक्त हैं। आवश्यक आभूषणों से वे भी बच नहीं पाये । ऊपर कुछ आकृतियाँ अंकित हैं। हाथीके ऊपर छोटी-सी भूल पड़ी है । हौदा कसा हुआ है, एवम् पीठ से कटि प्रदेशतक किंकिणीसे सुशोभित हैं। हाथियोंके इसप्रकार के गठन से अनुमान किया जा सकता है कि इस वैज्ञानिक युगमें भी हाथीपर बैठनेकी शैलो में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ । धर्ममूलक कलाकृतियों में भी जनजीवनकी उपेक्षा उन दिनोंके कलाकारों द्वारा न होती थी, परिकर में हाथी कमलपर आधृत हैं । तन्निम्न भागमें अर्थात् छत्र के ठीक नीचे उभय ओर " दो यक्ष एवं चार नारियाँ गगनविचरण करती बनाई गई हैं । गन्धर्वके हाथ में पड़ी हुई मालाएँ गुथी हुई के समान – चढ़ाने को उत्सुक हों । सापेक्षतः पुरुषोंकी मुखमुद्रापर सुकुमार और स्वस्थ सौन्दर्यकी रेखाएँ प्रतिस्फुटित हुई हैं । मस्तकपर किरोट मुकुट पहिना है । इस प्रकार के किरीट मुकुटों का व्यवहार गढ़वा के अवशेषों में भलीभाँति पाया जाता है । कटनीसे प्राप्त दशावतारी विष्णु प्रतिमा के मस्तकपर भी इसी प्रकारकी मुकुटाकृति है । तात्पर्य कि किरीट मुकुटका व्यवहार श्रेष्ठ कलाकार प्रायः ११वीं शतीतक तो
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