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मध्यप्रदेशका जैन-पुरातत्त्व
१६७ मालूम होती हैं । सिवनीके दिगम्बर-जैन मन्दिर में १३ वीं शतीकी लगभग ७ मूर्तियाँ हैं । ये धुनसौरसे लाई गई हैं। दलसागरके घाटोंमें भी सुन्दर जैनमूर्तियाँ जड़ दी गई हैं । यहाँ के प्रसिद्ध मुत्सद्दी श्रावक लक्ष्मीचन्द्रजी भूराके पौत्रके संग्रहमें एक खंडित स्फटिक रत्नको जैन-प्रतिमा है । सिवनीसे जबलपुर-रोडपर २० वें मीलपर छपराके दिगम्बर जैन-मन्दिरमें ११ वीं शतीकी एक जैन मूर्ति विराजमान है । इस मूर्तिको देखकर हठात् कहना पड़ता है, मानो कला ही मूर्ति-रूपमें अवतरित हुई है । मूर्तिका परिकर अतीव आकर्षक है । दोनों ओर खड्गासनस्थ कर्ण-निकटवर्ती देवियाँ और निम्न भागमें कुछ परिचारिकाएँ उत्कीर्णित हैं । मूर्तिका सिंहासन खंडित है । श्याम पाषाणपर इस प्रकारको मूर्तियाँ प्रान्तमें बहुत कम पाई जाती हैं । कहा जाता है कि यह मूर्ति किसी समय धुनसौरसे लाई गई थी।
जबलपुरका मध्य-प्रदेश के इतिहासमें विशिष्ट स्थान है। शिलान्तर्गत लेखोंमें इसका 'जाबालिपत्तन' नाम प्रसिद्ध है । प्राचीन राजधानी गढ़ा या कर्णवेल थी । यहाँ ६०० वर्ष पूर्व के खण्डहर वर्तमान हैं। कर्णदेव कलचुरिने इसे बसाया था । ११ वीं शताब्दीमें मध्यप्रान्तान्तर्गत महाकोसलके अधिपति कलचुरि एवं गुजरातके चालुक्य थे । उभय राजवंशोंके आराध्यदेव शिव थे। दोनोंने शिवके विशाल मन्दिर निर्माणकर योग्य महन्त रखे थे। जैन-धर्मका आदर यों तो दोनों ही करते थे; पर चालुक्य राजवंश विशेष रूपसे करता था। शिल्प-स्थापत्य-कलाका प्रेम दोनों ही राजवंशोंको था । शिल्पकलाकी दृष्टि से बंगालके पालवंशीय नरेशोंकी तुलना हम उपर्युक्त उभयवंशोंके साथ आसानीसे कर सकते हैं। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म कोरणी, आभूषणोंमें वैविध्य, पाषाणको सफाई, चेहरोंपर सजीवता आदि इन राजवंशों द्वारा प्रचारित कलाओंके प्रधान गुण हैं । महाकोसलके कर्णदेवने जिसप्रकार अपने पुत्रको राजगद्दीपर आसीनकर स्वनिवासार्थ कर्णवेल नामक नूतन नगरी बसायी, ठीक उसी प्रकार गुजरातके चालुक्य कर्णदेवने स्वपुत्र सिद्धराजकी राज्यपदपर अधिष्ठितकर अपने लिए कर्णावती नगरी
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