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auseat वैभव
गुप्तकाल भारत में स्वर्णयुग माना जाता है । जैनसंस्कृति और इतिहासपर प्रकाश डालनेवाले इस युग के लेख नहींके समान मिलते हैं, उदयगिरि (भेलसा) का लेख अवश्य महत्त्वपूर्ण है, जो ऊपर आ चुका है । कुछेक मूर्तियों पर भी लेख मिले हैं।
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हाँ, इस युगकी विशेष सामग्री 'चूर्णियाँ' व "भाष्य" हैं, जिनका महत्त्व भारतीय इतिहासकी दृष्टिसे अधिक है, कारण कि उनमें वर्णित अधिकतर घटनाएँ इतिहास से साम्य रखती हैं ।
गुप्तोत्तरकालीन लेख - सामग्री प्रचुर है । दक्षिण और उत्तर-पश्चिम में जैनोंका प्राबल्य था । श्रवणबेलगोलाकी ओर पाये जानेवाले लेखोंकी लिपि कर्णाटकी- कनाडी है। दक्षिणभारतके कुछ महत्त्वपूर्ण लेखों का प्रकाशन विस्तृत भूमिका सहित डॉ० हीरालालजी जैनके सम्पादकत्व में हो हो चुका है । यद्यपि इसमें केवल श्रवणबेलगोला एवं तत्सन्निकटवर्ती स्थानों का ही समावेश है, फिर भी उस ओरके इतिहासपर, इनसे अच्छा प्रकाश पड़ता है ।
दक्षिण भारत के लेखोंका संग्रह प्रकाशित करवानेका यश मि० ई० हुलश, जे ० ० एफ० फ्लीट व लूइस राईस आदि विद्वानोंको मिलना चाहिए । इन्होंने कठिन श्रमद्वारा, दक्षिण के कोने-कोने से संकलन कर 'साउथ इंडिया इन्स्क्रिप्शन' इंडियन एन्टीक्वेरी, 'एपिग्राफिया कर्णाटिका' आदि ग्रन्थों में प्रकट किये। ये अधिक संस्कृत या पुरानी कन्नड़ भाषा में थे । कर्णाटकमें जैनलेखोंकी अधिकता है, क्योंकि जैन इतिहासकी कुछ घटनाएँ इस भूभागपर भी घटी हैं। मेरा तो विश्वास है कि यदि जैनलेखोंको कर्णाटकीय ऐतिहासिक साधनोंसे पृथक् कर दिया जाय, तो वहाँका इतिहास ही पूर्ण रहेगा । इसका कारण यह है कि जैनाचार्योंने वहाँ पर इतना प्रभाव जमा रखा था, कि जनता उनको अपना ही व्यक्ति मानती थी । मथुराके लेखोंपर डॉ० फुहरर व डॉ० बूलरने अच्छा प्रकाश डाला है । जैनलेखों का वर्गीकरण डॉ० गिरनाटने १६०८ में किया था ।
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Aho ! Shrutgyanam