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जैन- पुरातत्त्व
ग़लतीसे बौद्ध मान ली गई थीं। एक कथा है जिसके अनुसार लगभग अठारह सौ वर्ष हुए महाराज कनिष्कने एक बार एक जैन स्तूपको गलती से बौद्ध स्तूप समझ लिया था और जब वे ऐसी गलती कर बैठते थे, तब इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि आजकलके पुरातत्त्ववेत्ता जैन इमारतोंके निर्माणका यश कभी-कभी बौद्धों को देते हों । मेरा विश्वास है कि सर अलेक्ज़ेंडर कनिंघमने यह कभी नहीं जाना कि जैनोंने भी बौद्ध के समान स्वभावतः स्तूप बनाये थे और अपनी पवित्र इमारतोंके चारों ओर पत्थर के घेरे लगाते थे । कनिंघम ऐसे घेरोंको हमेशा "बौद्ध घेरे" कहा करते थे और उन्हें जब कभी किसी टूटे-फूटे स्तूपके चिह्न मिले तब उन्होंने यही समझा कि उस स्थानका सम्बन्ध बौद्धोंसे था । यद्यपि बम्बईके विद्वान् पण्डित भगवानलाल इन्द्रजीको मालूम था कि जैनोंने स्तूप बनवाये थे और उन्होंने अपने इस मतको सन् १८६५ ईसवी में प्रकाशित कर दिया था, तो भी पुरातत्त्वान्वेषियोंका ध्यान उस समय तक जैनस्तूपोंकी खोजकी तरफ न गया जबतक कि ३० वर्ष बाद सन् १८६७ ई० में बुहलरने अपना " मथुराके जैन स्तूपकी एक कथा " शीर्षक निबन्ध प्रकाशित न किया "
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कनिंघम साहबके रक्तशोषक श्रमजनित कार्योंने प्रमाणित कर दिया कि भारत प्राचीनतम कलात्मक प्रतीकोंका देश है और भविष्य में भी गवेषणा अपेक्षित है । वे केवल खोज करके ही या विवरणात्मक रिपोर्ट लिखकरके ही संतुष्ट न हुए, अपितु महत्त्वपूर्ण स्थानोंकी समुचित रक्षाका भी प्रबन्ध करवाया | मेजर कॉलने इसमें अच्छी मदद की। तीन वर्षके
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प्रयत्न स्वरूप -
प्रिजर्वेशन ऑफ नेशनल मॉन्युमेण्टस ऑफ इण्डिया
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नामक तीन रिपोर्ट प्रकाशित हुई ।
कनिंघम साहब ने जो कार्य किये, उनके आधार चीनी पर्यटकों के
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'वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ २३४-३५ ।
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