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मध्यप्रदेशका जैन-पुरातत्त्व कह सकते हैं। इस मन्दिरकी दीवालपर भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति उत्कीर्णित है । ८वीं सदीके लगभग कन्नोजका एक यात्री 'उमदेव' नामक आया उसने मन्दिर बनवाया, जैसा शिलोत्कीर्ण लिपिसे अवगत होता है। मध्यप्रान्तीय इतिहास शोधक श्री प्रयागदत्तजी शुक्लका मानना है कि पूर्व यह जैनमन्दिर था, पर बादमें सनातनी मन्दिर बनवाया गया। आज भी तिगवाँ में कई जैनमूर्तियाँ पाई जाती हैं। गुप्तकालमें विन्ध्यप्रान्तमें भी जैनधर्मकी स्थिति अच्छी थी। ओरिसा व मालवमें भी जैनश्रमणोंका अप्रतिबद्ध विहार जारी था। उदयगिरि (भेलसा) को एक गुफामें पार्श्वनाथकी एक मूर्ति उत्कीर्णित थी, पर अब फन भर है। यह गुप्तयुगीन व लेखयुक्त है। इस कालमें बुन्देलखण्डमें जैन-आचार्य हरिगुप्त हुए, जो हूण नेता तोरमाणके गुरु थे। - वाकाटकोंका शासन बुन्देलखण्डसे खानदेशतक था । चौलुक्योंने इनकी जड़ साफ की। वे इतने प्रबल थे कि पुलकेशी (चौलुक्य) ने हर्षको पराजित कर, नर्मदाके दक्षिणमें आनेसे रोका था । चौलुक्योंपर जैनसंस्कृतिका प्रभाव था। इसका समर्थन तात्कालिक साहित्य व लिपियाँ करती हैं । आगे चलकर चालुक्य और कलचुरियोंका पारिवारिक सम्बन्ध भी हो गया था।
भद्रावतीका पाण्डु-सोमवंश बौद्ध था, उस समय वहाँ जैन-धर्मका अस्तित्व निश्चित रूपसे था। वहाँ बौद्धमूर्तियोंके साथ जैन प्रतिमाएँ भी उसी समयको अनेक पाई जाती हैं। उनमेंसे कुछेकपर “देवधर्मोऽयं" व बौद्धमुद्रालेख उसी लिपिमें पाया जाता है । इस ओर लिंगायत पर्याप्त पाये जाते हैं , जो जैनके अवशेष हैं । शैवोंके अत्याचारोंने इन्हें धर्मपरिवर्तनार्थ बाध्य किया था। .........
"मध्यप्रान्तके भिन्न-भिन्न शासकोंका शिल्पकलाविषयक प्रेम" शीर्षक निबन्ध । डा० फ्लीट कार्पस इन्स्क्रिप्सन इण्डिकेरम् भा० ३।
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