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खण्डहरोंका वैभव
ओरिसा और मद्रास प्रान्तके, मध्यप्रदेशसे सम्बन्धित भूसंस्कृति और ऐतिहासिक साधनोंका समुचित अध्ययन नहीं कर लेते, तबतक प्रान्तीय इतिहासका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेंगे । जैसा कि मैं ऊपर सूचित कर चुका हूँ कि हमारा कर्तव्य है मानवोन्नायक इतिहासकी गवेषणाका, नैतिकता और परम्पराका । शासन अपनी राजकीय सुविधाके लिए भले ही प्रदेशोंका विभाजन कर डाले, पर सांस्कृतिक विभाजन कठिन ही नहीं, असम्भव है। ___ अाज हम जिस भू-भागको मध्यप्रदेशके नामसे पहचानते हैं, वह पूर्वकालमें कई भागोंमें कई नामोंसे विभाजित था। यह नाम तो अांग्ल शासनकी देन है। आज भी महाकोसल और विदर्भ दो भाग हैं। महाकोसलको प्राचीन साहित्यमें उत्तरकोसल कहा गया है। रामायण, महाभारत और पुराणादि ग्रन्थों में इस प्रान्तके विभिन्न राज्योंके विवरण प्राप्त होते हैं। जैन-कथात्मक व आगमिक साहित्यमें कोसलदेशका महत्त्व उसकी प्रगतिपर प्रकाश डालनेवाले उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ये उल्लेख उस समयके हैं, जब 'कोसल' अविभाजित था। बाद में उत्तरकोसल और दक्षिणकोसल, दो भाग हो गये। उत्तरको राजधानी अयोध्या और दक्षिणकी राजधानी मध्यप्रदेशमें थी । गुप्तताम्रपत्रोंसे इसका समर्थन होता है । __ मौर्यकालके बाद शुंगकालमें श्रमण परम्पराकी दोनों शाखाओंका विकास सीमित हो गया था, इसका प्रभाव मध्यप्रदेशपर भी पड़ा । बाकाटक शैव थे। उनके शासनकालमें शैव-सम्प्रदायके विभिन्न स्वरूपोंको मूर्त-रूप मिला। उनका शासन आधुनिक मध्यप्रान्त तक था, परन्तु विपक्षित विषयपर प्रकाश डालनेवाले साधन, इस युगके नहीं मिलते । हाँ, गुप्तकालीन अवशेषोंपर उनका कला-प्रभाव स्पष्ट है, जो स्वाभाविक है ।
गुप्तकाल भारतका स्वर्ण युग माना जाता है। पर मध्यप्रान्तमें इसकी कलाके प्रतीक अल्प मिलते हैं । जबलपुर जिलेके 'तिगवाँ' ग्राममें एक मन्दिर है, जिसे वास्तुशास्त्रके सिद्धान्तोंके आधारपर हम गुप्तकालीन
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