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खण्डहरोंका वैभव ई० सन् आठवीं शतोके बादकी जैनपुरातत्त्वकी पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती हैं । इतनेमें कलचुरि वंशका उदय होता है। इस समय शिला व मूर्तिकला उत्कर्षपर थी। वे इसके न केवल प्रेमी ही रहे, पर उन्नायक भी थे । इस कालकी जैन प्रतिमाएँ आज भी दर्जनों पाई जाती हैं, और खंडहर भी। इसपर मैं अन्यत्र विचार कर चुका हूँ। अतः यहाँ पिष्टपेषण व्यर्थ है। ____ कलचुरि कालमें महाकोसलका पूरा भू-भाग जैन-संस्कृतिसे परिव्याप्त था । विदर्भ में भी यही उत्कर्ष था । यहाँ तक कि गुजरात जैसे दूर प्रान्तके जैनाचार्योंको मूर्ति व मन्दिर प्रतिष्ठार्थ वहाँ आना पड़ता था। नवांगी-वृत्तिकारसे भिन्न, मलधारी श्रीअभयदेवसूरिने विदर्भमें आकर अन्तरिक्षपार्श्वनाथकी प्रतिष्ठा वि० सं० ११४२ माघ शुदि ५ रविवारको की । अचलपुरके राजा ईल' या एल जैन-धर्मानुयायी था। उसने पूजार्थ श्रीपुर-सिरपुर गाँव भी चढ़ाया था । अचलपुर उन दिनों जैन संस्कृतिका केन्द्र था । धनपालने अपनी "धम्मपरिक्खा” यहाँपर वि० सं० १०४४ में समाप्त की। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने भी अपने व्याकरणमें 'अचलपुर'का प्रासंगिक उल्लेख इस प्रकार किया है, जो इसकी आन्तप्रान्तीय प्रतिष्ठाका सूचक था"अचलपुरे चलोः अचलपुरे चकारलकारयोव्यत्ययो भवति अचलपुरं ।।
२, ११८ । आचार्य जयसिंहसूरि (६१५) ने अपनी “धर्मोपदेशमाला" वृत्तिमें अयलपुर-अचलपुरमें अरिकेसरी राजाका उल्लेख इसप्रकार किया है ।
"अयलपुरे दिगम्बरभत्तो 'अरिकेसरी' राया । तेणय काराविभो महा
ईल राजाने अभयदेवसूरि द्वारा मुक्तागिरि तीर्थपर भी पार्श्वनाथ स्वामीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करवायी थी, शीलविजयजीने इस तीर्थकी यात्रा की थी।
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