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खण्डहरोंका वैभव
ऐतिहासिक समीक्षाएँ लिखी हैं, एवं सिंघी- जैन ग्रन्थमाला में - जिसके वे मुख्य सम्पादक हैं, जैन- इतिहास के सर्वमान्य मौलिक ग्रन्थोंका प्रकाशन कर, जो सेवा की है और कर रहे हैं, वह राष्ट्र के लिए गौरवकी वस्तु है । उनके तत्त्वावधान में राजस्थान में गवेषणा - विषयक जो कार्य हो रहे हैं, उनसे बहुत नवीन तथ्य प्रकाश में आवेंगे। मुझे ज्ञात हुआ है कि मुनिश्री के तत्वावधान में, अभी-अभी एक समितिद्वारा आबू पहाड़के ऐतिहासिक स्थानोंकी गवेषणा जोरोंसे हो रही है ।
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ईस्वी १७८४ से आजतक स्वतन्त्र या शासन के अधिपत्य में पुरातन स्थान व ऐतिहासिक साधनोंका अन्वेषण किया गया, तो भी अभी भारतवर्षके जंगलों में और खण्डहरों में हजारों कलात्मक 'जैन प्रतीक' अरक्षित उपेक्षित दशा में इतस्ततः बिखरे पड़े हैं, जिनपर भारतीय पुरातत्त्व विभागका लेशमात्र भी ध्यान नहीं है । पुरातन जैन मन्दिर व तीर्थों में आज भी उल्लेखनीय लेख व कलाकी दृष्टिसे अनुपम शिल्प कृतियाँ सुरक्षित हैं, जिनका पता पुरातत्त्वज्ञ नहीं लगा सके थे । इन धार्मिक दृष्टि से महत्त्व रखनेवाले प्रतीकोंका अध्ययनपूर्ण प्रकाशन हो तो सम्भव है भारतीय मूर्त्ति व शिल्पकलापर तथ्यपूर्ण प्रकाश पड़ सकता है। मूर्त्तिविषयक उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं। पर यह तब ही सम्भव है, जब जैनमूर्तिविधान व तदंगीभूत अन्य भावशिल्पोंपर प्रकाश डालनेवाले ग्रन्थस्थ उल्लेखों का तलस्पर्शी अध्ययन हो । कभी-कभी देखा जाता है कि जैन विद्वान् जैन मूर्तिकलापर क़लम चला देते हैं, और उनके द्वारा विद्वज्जगत् में भी ऐसी भ्रान्ति फैल जाती है, कि उनको दुरुस्त करना कठिन हो जाता है । ऐसी भूलोंमें कुछेक ये हैं- "जैन आइकोनोग्राफी" श्री भट्टाचार्य लिखित लाहोरसे प्रकट हुई थी । उसमें ऋषभदेव स्वामीकी मूर्तिका एक ही चित्र दो बार प्रकाशित है, पर नीचे लिखा है "यह महावीर स्वामीकी प्रतिमा है" । जब वृषभ लंकुन व स्कन्धपर केशावली भी स्पष्टतः उत्कीर्णित है | लेखकने इनपर ध्यान दिया होता, तो यह भूल न होती ।
Aho ! Shrutgyanam