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आजके प्रगतिशील युगमें भी प्रान्तीय इतिहास व पुरातत्त्व-साधनोंके
__ प्रति, जाग्रति नहीं दीख पड़ती है और सोची जा रही है भारतीय इतिहास लिखनेकी बात । यह इतिहास राजा-महाराजाओं व सामन्तोंका होगा । जब तक हम मानवीय 'नैतिक' इतिहासको ठीकसे न समझेंगे, तबतक भारतीय नैतिकताका इतिहास नहीं लिखा जा सकता । किसी भी देशकी राजनैतिक उन्नतिकी सूचना, उसके विस्तृत भू-भागसे मिलती है, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रके उच्चतम नैतिक स्तरका पुष्ट व प्रामाणिक परिचय, उसके खंडहरों में फैले हुए अवशेष व कलात्मक मूर्तियोंसे मिलता है । हमारा प्राथमिक कर्त्तव्य यह होना चाहिए कि भारतके विभिन्न प्रान्तोंका, अपने-अपने ढंगसे, राजनैतिक इतिहास तो लिखा गया; पर नैतिक इतिहासके साधन अरण्यमें धूप-छाँह सहकर विद्वानोंकी प्रतीक्षा ही करते रह गये उन्हें एकत्र करना । कुछेक गिट्टियाँ बनकर सड़कोंपर बिछ गये । पुलोंमें ओंधे-सीधे फिट हो गये । कुछ एक विशालकाय वृक्षोंकी जड़ोंमें ऐसे लिपट गये कि उनका सार्वजनिक अस्तित्व ही समाप्त हो गया। कुछ एकका उपयोग गृह-निर्माण-कार्यमें हो गया। कलासाधकोंद्वारा प्रदत्त, जो अमूल्य सम्पत्ति उत्तराधिकारमें मिल गई हैं या बच गई हैं, उनकी सुधि लेनेवाला आज कौन है ? कहने के लिए तो "पुरातत्त्व विभाग” बहुत कुछ करता है; पर जो अरण्यमें, खण्डहरोंमें पैदल घूमकर अवशेषोंसे भेंट करता है, वह अनुभव करता है कि उक्त विभागके अधिकारियोंका कार्य काग़ज़के चिथड़ोंपर या आँकड़ोंसे भले ही अधिक मालूम होता हो; पर वस्तुतः वह लाखोंके व्ययके बाद भी, नगण्य-सा ही हो पाता हैं। इन पंक्तियोंको मैं अपने अनुभवसे लिख रहा हूँ और विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूँ कि आज भी अनेकों ऐसे महत्त्वपूर्ण कलात्मक अवशेष भारतके विभिन्न प्रान्तोंमें दैनंदिन विनष्ट हो रहे
Aho ! Shrutgyanam