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जैन-पुरातत्त्व
१४७ श्री सतीशचन्द्र कालाने "प्रयाग' संग्रहालयमें जैनमूर्तियाँ" शीर्षक एक निबन्धमें लिखा है, कि "गणपति" भी जैन मूर्तियोंके साथ पूजे जाने लगे । पर कालाजीने भगवान् पार्श्वनाथके “पार्श्वयक्ष' के स्वरूप पर ध्यान दिया होता, तो ज्ञात हो जाता कि वह गणपति नहीं, पर जैनयक्ष हैं । यदि 'गणपति' का पूजन जैनमूर्तिशास्त्रोंमें हो तो ये प्रकट करें। कालाजीने उसी लेखमें यह भी लिखा है कि “१२वीं शताब्दीके बाद अधिकतर मूर्तियोंमें लिंगको हाथोंके नीचे छिपानेकी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है।" पर मेरे अवलोकनमें आजतक ऐसी एक भी मूर्ति नहीं आई । जब प्रतिमामें ननत्व प्रदर्शित करना ही है तो फिर हँकनेकी क्या आवश्यकता ? वे आगे कहते हैं कि “एक तो इसमें तीर्थंकर विशाल जटा पहिनें हैं | तीर्थकर जटा नहीं पहनते थे, वह तो चतु:मुष्टी लौंचका रूपक है।
त्रिपुरीमें सयक्ष-यक्षी नेमिनाथकी खंडित प्रतिमाको व्यौहार राजेन्द्रसिंहजीने अशोक-पुत्र महेन्द्र और संघमित्रा मान लिया।
__ जिसप्रकार सर कनिंघम और सर जान मार्शलने चीनी पर्यटकों के यात्रा-विवरणोंको आधारभूत मानकर अपनी गवेषणा प्रारम्भ की थी, ठीक उसी प्रकार मध्यकालीन विलुप्त जैनतीर्थों का अन्वेषण तीर्थमालाओंके अाधारपर होना चाहिए, क्योंकि सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दीकी तीर्थमालाओं में जिन जैन-स्थानोंका उल्लेख किया गया है, वे आज अनुपलब्ध हैं। जैसे कि-मुनिश्री सौभाग्यविजयजी विक्रम संवत् १७५० में पूर्व देशकी यात्रा करते हुए बिहार में पहुँचे । आपने अपनी तीर्थमालामें उल्लेख किया है, कि पटनासे ५० कोसपर 'बैकुण्ठपुर' ग्राम है। वहाँ से १० कोष चाड़ग्राम पड़ता है, वहाँ के मन्दिरमें रत्नकी प्रतिमा है । गंगाजीके
'श्रीमहावीर स्मृति ग्रंथ, पृ० १६२ ।
श्री महावीर स्मृति ग्रंथ, पृ० १६३ । 'त्रिपुरीका इतिहास, पृ० २६ ।
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