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जैन-पुरातत्त्व
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मुझे अपने अनुभवोंके आधारपर सखेद लिखना पड़ रहा है कि आजका पुरातत्त्व-विभाग सापेक्षतः अन्वेषण एवं संरक्षण विषयक कार्यमें उदासीन है । मुझे तो ऐसा लगता है कि पुरातत्त्व विभागका अब एकमात्र यही कार्य रह गया है कि पूर्व संरक्षित अवशेषोंकी येन-केन प्रकारेण रक्षा की जाय । यों तो सामयिक पत्रोंसे सूचना मिलती है कि कहीं-कहीं खनन-कार्य जारी है, पर एक ओर अवशेषोंकी समुचित रक्षातक नहीं हो रही है। मध्यप्रदेश में मैंने दर्जनों ऐतिहासिक खण्डहर ऐसे देखे जो पुरातत्त्व विभाग द्वारा सुरक्षित स्मारकोंमें घोषित हैं, पर इन्हीं खण्डहरोंके समीप या कुछ दूर पर सर्वथा अखण्डित सुन्दरतम मूर्तियाँ या अवशेष पड़े हैं। उनकी ओर कर्मचारियोंने लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया । क्या सुरक्षित सीमामें इन्हें उठाकर नहीं रखा जा सकता था या सुरक्षित सीमा नहीं बढ़ाई जा सकती थी ? इस प्रकारकी असावधानीने, सुरक्षाके लिए स्वतन्त्र विभाग होते हुए भी अत्यन्त सुन्दर कलाकृतियोंको सुरक्षासे वंचित रह जाना पड़ा; क्योंकि ग्रामीण जनता ऐसे अवशेषोंका उपयोग अपनी सुविधानुसार कर लेती है। जबलपुर जिलेमें तो सुरक्षित स्मारकोंके खम्भोंका उपयोग एक परिवारने अपने गृह-निर्माणमें कर लिया है। कटनीमें मुझे एक जैन सजनसे भेंट हुई थी, जिनका पेशा ही पुरातन वस्तु-विक्रय है । इन सब बातोंके बावजूद भी जब कोई व्यक्ति सांस्कृतिक व लोककल्याणकी भावनासे उत्प्रेरित होकर यदि वैधानिक रोतिसे, संग्रह करता है, तो पुरातत्त्व-विभाग व प्रान्तीय शासन, शोधका यश किसी व्यक्तिको न मिले, इस नीयतसे, अनुचित व अवैधानिक कार्य करनेमें लेशमात्र भी नहीं हिचकता । किसी भी देशके लिए यह विषय अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है । एक युग था जब इस प्रकारके कार्यकर्ताओंको उत्साहित कर, शासन उनसे सेवा लेता था, पर स्वाधीन भारतमें शायद यह पराधीन भारतकी प्रथाको महत्त्व देना उचित न समझा गया हो । जहाँतक मैं सोचता हूँ पुरातत्त्वको खोजका कार्य यदि केवल सरकार ही के भरोसे चलता रहा, तो शताब्दियों तक भी शायद पूर्ण हो
Aho ! Shrutgyanam