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जैन-पुरातत्त्व
१३४ एडवर्ड टामस, अलेक्जेण्डर कनिंघम, वाल्टर इलियट, मेडोज टेलर, डा० भाउ दाजी और डा० भगवान्लाल इन्द्रजी आदि विज्ञोंके हाथमें रहा । भारतीय शिल्प-स्थापत्य-कलाके प्रारम्भिक इतिहासमें फरगुसनका नाम बड़े आदरके साथ लिया जाता है । आपके ग्रन्थ ही इस विषयपर समुचित प्रकाश डालते हैं। आपने जैनतीर्थों, मन्दिरों व गुफाओंपर भी प्रकाश डाला है, यद्यपि उनके परिचय और समय निश्चित करने में उचित साधनोंके अभावमें कहीं-कहीं महत्त्वपूर्ण स्खलनाएँ भी रह गई हैं, पर इनसे उनके कार्यका महत्त्व लेशमात्र भी कम नहीं होता। कहा जाता है कि इनका स्थापत्य विषयक ज्ञान इतना बढ़ा-चढ़ा था कि किसी भी इमारतको देखते हो, सामान्यतः निश्चयपर पहुँच जाते थे। उनकी दृष्टि बड़ी पैनी, वेधक व निर्णायक थी। इस महत्त्वपूर्ण और अभूतपूर्व कार्यमें उनको सफलता मिलनेका एकमात्र कारण यही था कि वे चित्रकलाके पण्डित थे। जन्मजात कलाकार थे। आपने कतिपय स्थानोंके चित्र व स्केच अपने हाथों तैयार किये थे। टामस व स्टिवेन्सनने मुद्राएँ व लेखोंपर अपनी दृष्टि केन्द्रित की। . डा० भाउ दाजीने अनेक शिलालिपियाँ पढ़ी, और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह किया, जो वर्तमानमें रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बोम्बेमें उन्हीं के नामसे सुरक्षित हैं। इस संग्रहमें अनेक महत्त्वपूर्ण जैन-ग्रन्थ भी संकलित हैं। शिलालिपियोंके पठनमें आपने डा० भगवानलाल'इन्द्रजीसे बहुत मदद ली थी। यह प्रथम सौराष्ट्री थे, जिनने पुरातत्त्वान्वेषण, विशेषतः लिपिशास्त्रमें अद्वितीय प्रतिभा व शोधक बुद्धि प्राप्त की थी।
इनकी प्रखर प्रतिभाका लाभ विदेशी विद्वानोंने अधिक उठाया । डा० बूलनर, जेम्स केम्बेल, प्रो० कन, और डा० रामकृष्ण भाण्डारकर जैसे विज्ञाने इतिहास-संशोधन व लिपिशास्त्र में अपना गुरु माना था । अपने ग्रन्थों में उपकार स्वीकृत किया है। आज गुजरातमें जो एतद् विषयक अन्वेषक हैं, वे आप ही की परम्पराके ज्वलन्त प्रतीक हैं ।
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