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खण्डहरोंका वैभव
ज्ञानचन्द्रजीने' पढ़े । सन् १८२८ में मि० बी० जी० बेबींग्टनने तामिल लेखोंपर से वर्णमाला तैयार की। १८३४ से १८३७ तक ट्रायर व डामिले द्वारा क्रमशः समुद्रगुप्त व भिटारीके स्कन्दगुप्तवाले लेख प्रकट हुए । इन दोनोंके श्रमसे गुप्तकालीन वर्णमाला तैयार हुई । १८३५ में, बोथने वलभीके दानपत्र पढ़े । जेम्स प्रिन्सेपने भी सन् १८३७-३८ में गिरनार दिल्ली, कमाऊँ, अमरावती और साँचीके गुप्त लेख पढ़े ।
सूचित समय के अन्दर अँग्रेजोंने भारतीय स्थापत्य व लेख पर विद्वत्तापूर्ण गवेषणाएँ कीं । कई लेख पढ़ डाले, जिनमें साँची, प्रयाग, गिरनार, मथिया, घौली, रधिया, श्रादि मुख्य हैं। इस बीच कुछ स्तूपोंकी खुदाई हो चुकी थी । ब्राह्मी लिपिका ज्ञान भी काफी हो गया था । इस काल में जेम्स प्रिन्सेपका भाग मुख्य रहा । इसके बाद ३० वर्ष तक पुरातत्त्वका पूर्ण सूत्र विख्यात स्थापत्य शोधक व श्रालोचक जेम्स फरगुसन, मेजर किट्टो,
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"ज्ञानचन्द्र जयपुरके खरतरगच्छके यति अमरचंद के शिष्य थे । भाषा - कविता के अच्छे ज्ञाता होनेके अतिरिक्त उन्हें संस्कृतका भी ज्ञान था। इस कारण कर्नल टॉड उनको अपना गुरु मानकर सदा अपने साथ रखते । टॉडके राजस्थान तथा ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया में जितने शिलालेखों और ताम्रपत्रोंका उल्लेख मिलता है, वे सब उन्होंने हो पढ़े थे । वे ई० सन्की १० वीं शताब्दी के आसपासके शिलालेखों को पढ़ लेते थे, परन्तु प्राचीन शिलालेख उनसे ठीक नहीं पढ़े जाते थे । संस्कृतका ज्ञान भी साधारण होनेके कारण कहीं-कहीं उनमें त्रुटियाँ रह गईं, जो टॉड के ग्रंथों में ज्यों-की-त्यों पाई जाती हैं। कर्नल टाडने महाराणा भीमसिंहसे सिफारिश कर उनको बहुत-सी ज़मीन दिलाई। उनका उपासरा मांडल नामक क़स्बेमें है, जहाँ टॉडके समयकी कई एक पुस्तकों, चित्रों तथा शिलालेखों की नकुले विद्यमान हैं
( श्री हरविलास सारदा "भारतीय अनुशीलन”, पृ० ७७ )
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