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जैन-पुरातत्त्व
१४३ मार्शलको है । इसी वर्ष हरप्पा और मोहन-जो-दडोके खननने प्रमाणित कर दिया कि भारतीय संस्कृति और सभ्यताका इतिहास, प्राप्त साधनोंके आधारपर ५००० वर्ष जाता है। अर्थाभावसे १६२७ में इस कार्यको स्थगित करना पड़ा।
जिन अंग्रेजोंद्वारा पुरातन गवेषणा विषयक कार्य चालू था, उस समय कुछ रियासतोंने भी अपने-अपने भूभागमें खोजका काम प्रारंभ किया । कहीं-कहीं तो पुरातत्त्व विभाग ही खोल डाला गया। ऐसे इतिहासप्रेमी नरेशोंमें सर्वप्रथम नाम भावनगर-नरेश तख्तसिंहजीका आता है। सौराष्ट्र और राजपूतानाके आपने कई लेख एकत्र करवाये, जो बादमें "भावनगर प्राचीन शोधसंग्रह" भाग १ में सूर्यवंशी राजाओंसे सम्बद्ध कई लेख गुजराती व अंग्रेजी अनुवाद सहित तथा दूसरे भाग--"ए कलैक्शन ऑफ प्राकृत एण्ड संस्कृत इन्स्क्रिप्शन्स" में सौराष्ट्रके मौर्य, क्षत्रप, गुप्त, वलभी, गुहित्र और गुजरातके चौलुक्योंके लेख, सानुवाद प्रकाशित
___ मायसोर व ट्रावनकोर स्टेटका दान भी उल्लेखनीय है । इनकी ओरसे क्रमशः दक्षिण भारतमें बहुत-से लेखों व मूर्तियोंपर प्रामाणिक ग्रन्थात्मक सामग्री प्रकाशमें आई । भोपाल, उदयपुर, ग्वालियर, बड़ौदा, जूनागढ़
और ईडर राज्योंने भी अपने-अपने भूभागोंका, अधिकारी विद्वानोंके पास अनुसन्धान करवाकर मूल्यवान् योग दिया। इन राज्योंके पुरातत्त्वरिपोटोंमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन सामग्री भरी पड़ी है।
राज्यकी ओरसे तो विद्वान् कार्य करते ही थे, पर, कुछ विद्वान् ऐसे भी उन दिनों थे, जो बिना किसी अपेक्षा रखे, स्वतन्त्र रूपसे अन्वेषण कार्य करते रहे । पुरातत्त्व विभागमें भी बहुत-से ऐसे प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे, जिनकी खोजोंका महत्त्व है । ऐसे विद्वानोंमें ए० सी० एल० कार्लाईल, मि० गैरिक, डा० फुहरर व स्पूनर आदि मुख्य हैं। . श्रीयुत रायबहादुर के० एन० दीक्षितके समयमें प्रागैतिहासिक स्थानों
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