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खण्डहरोंका वैभव खारवेलका जैन लेख इन्होंने ही शुद्ध किया था। इस प्रसङ्गमें डा० राजेन्द्रलाल मित्रको नहीं भुलाया जा सकता। आपने पुरातत्त्वानुसन्धानके साथ नेपालके साहित्य और इतिहासका विस्तृत ज्ञान कराया। पुरातत्त्व-विभागकी स्थापना
अभीतक जिन विद्वानोंने भारतीय पुरातत्त्व, इतिहास और साहित्य विषयक जितने भी कार्य किये, वे वैयक्तिक शोधकरुचिका सुपरिणाम था। वे भले ही सरकारी अधिकारी रहे हों, पर शासनने कोई उल्लेखनीय सहायता न दी थी, न शासनकी इस अोर खास रुचि ही थी! क्या स्वतन्त्र भारतके अधिकारियोंसे वैसी अाशा करूँ ?
सन् १८४४ में लण्डनकी रायल एशियाटिक सोसायटीने ईस्ट इण्डिया कम्पनीसे प्रार्थना की कि वह इस पवित्र कार्यमें मदद करे। पर इस विनतीका तनिक भी प्रभाव न पड़ा। कुछ काल बाद युक्त प्रान्तके चीफ इञ्जीनियर कर्नल कनिंघमने एक योजना शासनके सम्मुख उपस्थित की,
और सूचित किया कि इस कार्यकी अोर शासन लक्ष नहीं देगा तो वह कार्य जर्मन या फ्रेंच लोग करने लगेंगे, इससे अंग्रेजोंके यशकी हानि होगी। तब जाकर आर्कियोलोजिकल सर्वे डिपार्टमेण्टकी सन् १८६२ में स्थापना हुई। कनिंघम साहबको इस विभागका सर्वेसर्वा बनाया गया-२५०) मासिकपर । आपने इस विभागद्वारा भारतीय पुरातत्त्वका जो कार्य किया है, वह अपनी २४ ज़िल्दोंमें प्रकाशित है। १८८५ तक आपने कार्य किया। जैनपुरातत्त्व व मूर्तिकलाकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मौलिक सामग्री इन २४ रिपोर्टों में भरी पड़ी है। आपको जैन-बौद्धके भेदोंका पता न रहनेसे, जैनपुरातत्त्वके प्रति पूर्णतया न्याय नहीं दे सके हैं, जैसा कि डा० विसेन्ट ए० स्मिथके इन शब्दोंसे ध्वनित होता हैजैन-स्मारकोंमें बौद्ध-स्मारक होनेका भ्रम
"कई उदाहरण इस बातके मिले हैं कि वे इमारतें जो असलमें जैन हैं,
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