________________
जैन - पुरातत्त्व
१२५
बाहर किये जाते हैं । प्राचीन मन्दिरोंके जीर्णोद्धार करनेवालोंको बहुत सावधानी से काम लेना चाहिए ।
यहाँपर मैं भावशिल्पकी एक और दिशाकी ओर संकेत कर दूँ कि रेखाओं के अतिरिक्त कुछ लेखनकलाकी सामग्री भी शिल्पमें आ जाती है । जैसे कि मन्दिरों में शतदल या सहस्रदलकमलकी पंखुड़ियों में भगवान्की स्तुतियाँ मिलती हैं । वे भी जैनाश्रित कलाकी गौरव गरिमा में अभिवृद्धि करती हैं । स्तम्भोंपर ऐसी आकृतियाँ अकसर खुदी रहती हैं ।
1
राणकपुर और कुम्भारियाजीके जिनमन्दिरों में भी कई भाव शिल्पके उत्कृष्ट प्रतीक पाये गये हैं । इस प्रकारकी साधन-सामग्री बहुत-से खण्डहरों में भी अनायास उपलब्ध हो जाती है । मन्दिर या धर्म-स्थानसे सम्बद्ध अवशेषोंके भाव तो प्रसंगको लेकर समझ में आ जाते हैं, पर एकाकी कोई टुकड़ा मिल जाय तो उसे समझना कठिन हो जाता है । शास्त्रीय एवं अन्यावशेषोंके ज्ञान बिना ऐसी समस्या नहीं सुलझती। मैं अपना ही अनुभव दे रहा हूँ । एक दिन मैं रॉयल एसियाटिक सोसायटो कलकत्ता के रोडिंगरूम में अपने टेबिलपर बैठा था, इतनेमें मित्रवर्य अर्जेन्दुकुमार गांगुलीने - जो भारतीय कलाके महान् समीक्षक हैं और 'रूपम्' के भूतपूर्व सम्पादक हैं- मुझे एक नवीन शिल्पाकृतिका फोटू दिया, उनके पास बड़ौदा पुरातत्त्व विभागकी प्रोरसे आया था कि वे इसपर कुछ प्रकाश डालें, मैंने उसे बड़े ध्यान से देखा, बात समझ में आई कि यह नेमिनाथजीकी वरयात्रा है । पर वह तो तीन-चार भागों में विभक्त थी, प्रथम एक तृतीयांश में नेमिनाथजी विवाह के लिए रथपर ग्रारूढ़ होकर जा रहे हैं, पथपर मानव समूह उमड़ा हुआ है, विशेषता तो यह थी कि सभीके मुखपर हर्षोल्लासके भाव झलक रहे थे, रथके पास पशु-दल रुद्ध था, श्राचर्यान्वित भावोंका व्यतिकरण पशुमुखोंपर बहुत अच्छे ढंगसे व्यक्त किया गया था, ऊपर के भागमें रथ पर्वतकी ओर प्रस्थित बताया है । इस प्रकारके भावोंकी स्थिति अन्यत्र भी मैंने देखी है, पर इसमें तो और भी विशिष्ट भाव थे, जो
Aho ! Shrutgyanam