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जैन-पुरातत्त्व
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चित्तौड़में एक और भी कीर्तिस्तम्भ है । प्राबूमें भी एक जैन-कीर्तिस्तम्भ पाया गया है।
५ भाव शिल्प
इस भागमें केवल वे ही कृतियाँ नहीं आतीं, जिन्हें कलाकार अपनी स्वतन्त्र कल्पना द्वारा, विभिन्न रेखाओंमें विशिष्ट भावोंको व्यक्त करता है । अपितु उनका भी समावेश होगा जो दृश्यशिल्पसे सम्बद्ध है । शिल्प शब्दका अर्थ बड़ा व्यापक है। वास्तुकला उसका एक भेद है। इसीके द्वारा--कलाकारोंने भारतीयजीवन और संस्कृतिके अमर तत्त्वोंको समुचित रूपसे अंकित किया है । जैनोंने जिनमूर्ति, मन्दिर और तदंगीभूत उपकरणोंका जहाँ निर्माण करवाया, वहाँपर पौराणिक कथा-साहित्य, और जैनधर्मके प्राचार प्रतिपादक दृश्योंका भी उत्खनन करवाकर, शिल्पवैविध्यमें अभिवृद्धि की । जैन इतिहासको विशिष्ट घटनाओंको जिस प्रकार साहित्यकारोंने अपनी शब्दावलियोंमें बाँधा, उसी प्रकार कुशल शिल्पियोंने अपनी छैनीसे, कठोर प्रस्तरपर उकेरकर, उनको सत्यतापर मुहर लगाई । भारतीय शिल्पकलामें, इस शैलीको श्रनणसंस्कृतिने ही सर्वाधिक प्रश्रय दिया।
प्राचीन मन्दिर और तीर्थस्थानोंमें विशिष्ट भावसूचक शिल्पको अच्छी सामग्री सुरक्षित रह सकी है, यह समाजका सौभाग्य है । ये हमारी संस्कृतिको तो आलोकित करते ही हैं, भारतीय जीवनके बहुमूल्य इतिहासपर भी प्रकाश डालते हैं । भारतीय समाज और लौकिक रीति-रिवाजोंका निदर्शन इन्हींके द्वारा संभव है। साध्यके प्रति साधकोंको स्वाभाविक भक्तिका सक्रिय रूप ही आचार-विषयक परम्पराको अधिक कालतक जीवित रख सकता है।
जैनाश्रित-कलाके परम पुनीत क्षेत्र मथुरामें ऐसी कृतियाँ मिली हैं। उनसे भगवान् महावीरके जीवन पटपर प्रकाश डालनेवाले साहित्यिक
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