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जैन-पुरातत्व
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पूर्वक करते रहे । दशम शती बाद तो शिल्प कलापर प्रकाश डालनेवाले ग्रन्थोंका भी सृजन होता गया। जिनमें इनकी निर्माण-शैलीका सम्यक् विवेचन है । कलाकारोंने मौलिक नियमोंका पालन करते हुए कल्पना शक्तिका भी भलीभाँति परिचय दिया । वे कलाकार अर्थके अनुचर न थे, कलाके सच्चे उपासक और कुशल साधक थे। जब भाव जागृत होते तब ही औज़ारोंको स्पर्श करते। कलाकृतियोंके निर्माणमें कोरे अर्थसे काम नहीं चलता, पर अान्तरिक रुचि भी अपेक्षित है। ऐसे उदाहरण भी किंवदन्तियोंमें हैं कि जहाँ उनका अपमान हुआ, या अर्थकी थैलीका मुँह उनके मनके अनुसार न खुला, तो तुरन्त कार्य भी स्थगित हो गया । तात्पर्य कि अर्थकी अपेक्षा श्रमका मूल्य अधिक है।
"प्रत्येक मन्दिर और शिल्पकी रूपभावना तथा कारीगरीका श्रेय प्रधानतः तत्कालीन कुशल कलाकारांको है। उनके प्रेरक भले ही धर्माचार्य, श्रीमान् या और कोई हों, पर कलाका जहाँतक प्रश्न है, यशके अधिकारी तो विश्वकर्माकी संतान ही हैं । उन्होंने अनेक शताब्दियोंतक आश्रयदाताओंका प्रभाव और भावना वैभव शिल्पकी अशब्द रूपावलीमें अमल
किया।" उत्तर व पश्चिम भारतके मन्दिरोंके शिखर प्रायः नागर शैलीके हैं, गुप्तकालके बादके मन्दिरोंके शिखर सापेक्षतः अलंकरणोंसे भरे मिलते हैं । उनपर जो सुललित अंकन पाया जाता है, वह कल्पना मिश्रित भावोंकी मौलिक देन है। न केवल पत्थरके ही शिखर मिलते हैं, पर इंटोंके भी पाये गये हैं। शिखरादि मन्दिरके बाह्य अलंकरण और शैली शुष्क धर्ममूलक न होकर, कलामूलक भी रही है। इसे सजानेको कलाचार्योंने भरसक चेष्टा की हैं। अन्तर केवल इतना ही प्रतीत होता है कि जिस
भारतना जैन-तीर्थों अने तेमनुं शिल्प स्थापत्य, पृ० १० ।
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