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जैन - पुरातत्त्व
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मन्दिर होते हुए भी उनमें कलात्मक वैभिन्न परिलक्षित होता है । नागर', द्राविड, बेसर इन तीन शैलियों का उल्लेख मानसार में इसप्रकार श्राया है
नागरं द्राविडं चैव बेसरं च त्रिधा मतम् । कण्डादारभ्य वृत्तं यद् तद्वेसरमिति स्मृतम् ॥ ग्रीवमारभ्य चाष्टानं विमानं द्राविडाख्यकम् । सर्व वै चतुरश्रं यत्प्रासाद नागरं त्विदम् ॥ वास्तुसार में प्रासाद और शिखरके कई प्रकारोंका वर्णन है । अपराजित, समरांगणसूत्रधार, प्रासादमंडन, दीपार्णव आदि शिल्प विषयक ग्रन्थों में भी इसकी विशद चर्चा है ।
यहाँ पर सूचित कर देना उचित जान पड़ता है कि मन्दिर निर्माण विषयक शैलीका सूत्रपात होनेके पूर्व भी जिनमन्दिर बन चुके थे । भृगुकच्छ - भड़ौच के शकुनिकाविहार-मुनिसुव्रत तीर्थंकरका मन्दिर इस कोटि में आता है । वि० सं० ४ पूर्व यहाँपर श्रार्य खपुटाचार्य के रहनेका उल्लेख जैन प्रबन्धों में आता है । यह विहार प्रथम काष्ठका था, पर चौलुक्योंके समय में बने पाषाणका बनाया । लेकिन अल्लाउद्दीनने गुजरातपर आक्रमण कर भृगुकच्छ सर किया और इतिहास प्रसिद्ध इस सांस्कृतिक तीर्थस्वरूप विहारको जामअ-मस्जिद में बदल दिया । यह घटना ई० स० १२६७की हैं । इसपर बर्जेसने विशेष विचार किया है । वह इसकी कला के सम्बन्ध में लिखता है - "इस स्थानकी प्राचीन कारीगरी, आकृतियोंकी खुदाई और रसिकता, स्थापत्य, शिल्पांकी कलाका रूप और लावण्य
'दोनों शैलियों का विवेचन शिल्प-ग्रन्थों में तो मिलता ही है । स्व० जायसवालजीने इतिहासके आधारपर "अन्धकार युगीन भारत में भी विचार किया है ।
२ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इंडिया वा० है ।
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