________________
११४
खण्डहरोंका वैभव
भारतमें बेजोड़ है । इस विहारपर प्रकाश डालनेवाले संस्कृत, प्राकृत
और देश्य भाषामें अनेक उल्लेख-बल्कि स्वतन्त्र ग्रन्थ मिलते हैं । कच्छभद्रेश्वरका मन्दिर भी सम्प्रतिद्वारा निर्मित, माना जाता है। पश्चिम भारतमें जो प्रान्तीय साहित्य उपलब्ध हुअा है, उसमें और भी कई प्राचीन मन्दिरोंका उल्लेख है, पर आठवीं शती पूर्वके ऐसे अवशेष अल्प ही मिले हैं । सम्भव है उनका उपयोग और कोई कार्य में हो गया हो, जैसा कि भद्रेश्वरके अवशेषोंका उपयोग ई० सं० १८१० में मुद्रा ग्राम बसानेमें हुआ था और शकुनिकाविहारका मस्जिदमें। कलचुरि बुद्धराजका पुत्र शंकरगण जैन था । कल्याणमें दैवी उपसर्गको शान्त करने के लिए माणिकस्वामीको मूर्ति भी प्रतिष्ठापित की थी। कहा तो यह भी जाता है कि कुल्पाकक्षेत्र ( हैद्राबाद ) के मन्दिर में १२ ग्राम इसने भेंट किये थे ।
अोझाजीने मन्दिरोंके चारों ओर देव कुलिकाओंका उल्लेख किया है, वह बावनजिनालयसे सम्बन्ध रखता है । श्रीमान् लोग इस प्रकारके मन्दिर बनवाते थे। चौलुक्य कुमारपालने भी ईडरगाढ़पर ऐसा मन्दिर बनवाया था। नन्दीश्वर द्वीप-रचनाके मन्दिर भी मिलते हैं। ___ दशम शती पूर्वके मैंने कुछ मन्दिर देखे हैं, उनमें गर्भगृह और आगे मंडप भर रहता है। ज्यों-ज्यों समय बदलता गया और शिल्पकला विकसित होती गई, त्यों-त्यों प्रासाद-रचना शैलीमें भी उत्कर्ष होता गया । कलाकार भी कृतिके निर्माण में सामयिक अलंकरणोंका प्रयोग सफलता
आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इण्डिया वॉ० ६, पृ० २२ ।
चाणक्यने अर्थशास्त्रमें नगरमें भिन्न-भिन्न देवमन्दिर कैसे होने चाहिए, इसका विधान किया है ।
समकालीन आचार्य श्रीजिनपतिसूरिने तोर्थमालामें इस प्रकार उल्लेख किया है
ईडरगिरौ निविष्टं चौलुक्याधिपतिकरितं जिनं प्रथमं ।
Aho! Shrutgyanam