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जैन-पुरातत्त्व
१११ पूर्वका है, जैसा कि अर्थशास्त्रसे सिद्ध है। गुफा और मन्दिरका सम्बन्ध गुजरातके कलाकार श्रीरविशंकर रावल इतना ही मानते हैं कि "अग्रिम मंडप दर्शनार्थी भक्तोंके लिए और गर्भगृह देवमूर्ति के लिए होता है।"
'मानसार में मन्दिरोंके भेदोंपर कुछ प्रकाश डाला है, परन्तु कलाकी दृष्टि से उन भेदोंमें विशेष अन्तर नहीं पड़ता, न धर्मगत शिल्पको अपेक्षासे ही । भेद मुख्यतः भौगोलिक है । मय शास्त्र और काश्यप शिल्पमें जैन
और बौद्ध-मन्दिरोंका उल्लेख है । मानसारमें भी उल्लेख तो है, पर वह इतना अनुदारतापूर्ण है कि उससे उनके रचयिताको भावनाका पता चलता है । वह लिखता है कि जैन-मन्दिर नगरके बाहर और वैष्णव-मन्दिर नगरके मध्यमें होना चाहिए । मुझे तो ऐसा लगता है कि गुफा-मन्दिर अक्सर पहाड़ियोंमें हुआ करते थे और बहुसंख्यक जैनमन्दिर भो स्वाभाविक शान्तिके कारण बाहर बनाये जाते थे। अतः उसने लिख दिया कि जैन मन्दिर बाहर होना चाहिए। पर इतिहास और साहित्यसे मानसार के साम्प्रदायिक उल्लेखकी पुष्टि बिल्कुल नहीं होती। __शान्तिक, पौष्टिक, जयद आदि मन्दिरों के नाम मानसारमें हैं। प्रत्येकका मान भिन्न-भिन्न है। इस शैलियोंसे भी यही ज्ञात होता है कि लेखक पारम्परिक साहित्यसे प्रभावित तो हुआ है, पर इससे भी अधिक सहारा प्रत्यक्ष कृतियोंसे लिया है। नागर, बेसर और द्रविड़ तीनों प्रकारका विश्लेषण डा० प्रसन्नकुमार आचार्यने आर्किटेक्चर एकोर्डिङ्ग टू मानसारशिल्पशास्त्र में भली भाँति किया है।
यहाँतक तो मन्दिरकी चर्चा इस प्रकार चली है कि उसमें जैन-मन्दिरबौद्ध-मन्दिर या हिन्दू-मन्दिर जैसी कोई साम्प्रदायिक चीज नहीं है। यहाँपर मन्दिरोंके निर्माणके विषयमें म० म० श्री गौरीशंकरजी ओझा का मत जान लेना आवश्यक है वे लिखते हैं---
"ईस्वी सन्की सातवीं शताब्दीके आसपाससे बारहवीं शताब्दीतकके सैकड़ों जैनों और वेदधर्मावलंबियोंके अर्थात्
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