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खण्डहरोंका वैभव परम्परा चली नहीं । बै० जायसवालजीका मानना है कि ओरिसामें भी कायनिसीदी-अर्थात् जैन-स्तूप था, जिसमें अरिहन्तका अस्थि गड़ा हुआ था। बौद्ध-स्तूपके तोरणमें जो अलंकरण और भावशिल्पोंके प्रतीक हैं उनमें जिनभक्तिका सम्यकप लक्षित होता है । मन्दिरकी रचना उस समय हो चुकी थी।
तैत्तिरीय संहिता में पूर्वकथित वेदीके स्वरूपोंका वर्णन हैचतुरश्रश्येनचित, प्रोणचित, कूर्मचित, समुह्यचितू, प्रौगचित, रथक्रचित आदि। इसीका अनुकरण बौधायन और आपस्तंभमें हुआ है। इन वेदियोंमें धर्मजनित भेदोंको स्थान नहीं था । अर्थात् हिन्दू, जैन और बौद्ध सभी स्वीकार करते थे। परिवर्तनप्रिय मानवने क्रमशः संशोधन, परिवर्द्धन प्रारंभ किये, जिनके फलस्वरूप गुम्बज़ और शिखर उठ खड़े हुए। मंडपोंका विधान भी बढ़ता ही चला। मंडपोंका विकास समयकी आवश्यकतानुसार होता गया । डा० आचार्यका उपर्युक्त मत समीचीन जान पड़ता है। वर्णित वेदियोंका विकसित रूप ही मन्दिर है । इसके क्रमिक विकासका इतिहास भी बड़ा मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक है, परन्तु यहाँ इतना स्थान कहाँ कि उनपर समुचित प्रकाश डाला जा सके । इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि मंदिरका निर्माण गुफ़ा
१३ वीं शतीके जैनांके ऐतिहासिक साहित्यसे ज्ञात होता है कि प्रतिभा संपन्न आचार्यों के दाह-स्थानपर "स्तूप" बना करते थे। ऐसे सैकड़ों स्तूपोंका उल्लेख प्राचीन हिन्दी पद्योंमें भी आता है । १८वीं शताब्दीतक यह स्तूप परंपरा चलती रही। इसमेंसे आचार्य श्रीजिनदत्तसूरि और श्रीजिनपतिसूरजी तथा श्री जिनकुशलसूरिजी महाराजके स्तूप विशेष उल्लेखनीय हैं। श्रीजिनपतिसूरजी पृथ्वीराज चौहानकी सभाके रत्न थे और अनेकानेक ग्रन्थ रचयिता विद्वानोंके गुरु भी।
खंड ४, ११ ।
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