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जैन पुरातत्त्व
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पर मौलिकतामें बराबर समानता-एकरूपता रही। जिन दिनों मूर्तिका निर्माण हुअा, उन दिनों कलाकारों के सम्मुख साहित्य था या नहीं ? नहीं कहा जा सकता, कारण कि मूर्तिकालतकके प्राचीन मन्दिर ही अनुपलब्ध हैं । मूर्ति और मन्दिरका प्रश्न जहाँ आता है, वहाँ उनके प्रतिष्ठा-विधान विषयक एवं वास्तुशास्त्रकी समस्या भी खड़ी होती है। गवेषककी इन शंकाओंका समुचित समाधान हो सके ऐसा प्राचीन साहित्य नहिंवत् ही है। हाँ इतना अनुमान अवश्य किया जा सकता है कि जब पादलितसूरिजोने निर्वाणकलिका की रचना की उस समय शिल्पका थोड़ा-बहुत साहित्य अवश्य ही रहा होगा, भले ही वह लिपिबद्ध न होकर पारम्परिक या मौखिक ही क्यों न रहा हो, कारण कि देव-देवियोंके आकार-प्रकार एवं श्रायुधोंको चर्चा उसमें वर्णित है । ___मथुराके जैन-अवशेषोंसे स्पष्ट है कि निर्वाणकलिका पूर्व भी यक्ष-यक्षिणियोंका स्वरूप स्थिर हो चुका था। मथुराके कलात्मक अवशेष इस बात की पुष्टि करते हैं कि इण्डोसाइथिक समयके जैनोंने एक प्राचीन मन्दिरमें से खुदाई के लिए उसके अवशेषोंका उपयोग किया था। स्मिथ भी यह मानते हैं कि ईस्वी पूर्व १५०में मथुरामें जैन-मन्दिर था ।” मथुराके "बौद्धस्तूप से शायद ही कोई अपरिचित होगा। इससे ज्ञात होता है कि उस समय जैनोंमें स्तूप पूजाका भी रिवाज चल पड़ा था, पर यह स्तूप
मथुराका देवनिर्मित कहा जानेवाल स्तूप धर्म-ऋषि और धर्मघोष मुनिकी रुचिके अनुसार कुबेराने बनवाया था। इससे इतना तो निश्चित है कि मुनिवर्ग कलात्मक उपकरणों के प्रति उदासीन न था। उस समय आजीवक संप्रदाय मा था, जो ज्योतिष आदि में प्रवीण माना जाता था। वह शिल्पसे सर्वथा अपरिचित हो, यह तो कम संभव है ।
दि जैन स्तूप ऐण्ड अदर एण्टीक्विटीज़ आफ मथुरा, प्रस्तावना, पृ० ३ ।
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