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जैन- पुरातत्त्व
प्रारम्भ हुआ, मध्यकालीन मन्दिरोंका पूर्वरूप कैसा था, प्राचीन काल के साधना स्थानोंका निर्माण कहाँ होता था ? ये प्रश्न निःसन्देह महत्त्वपूर्ण हैं । पर इनका उत्तर सरल नहीं है । पुरातत्त्व और इतिहास के उपलब्ध साधनों के आधारपर तो यही कहा जा सकता है कि प्रथम मूर्तिका निर्माण और बादमें मन्दिर, जिसे एक प्रकारसे गुफाका विकसित रूप मानें तो अत्युक्ति नहीं । मन्दिरको उत्पत्ति और स्थितिविषयक विद्वानोंमें मतभिन्नत्व स्पष्ट है । जितनी प्राचीन मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं, उतने मन्दिर नहीं । मूर्तियोंकी अपेक्षा मन्दिरोंकी उपलब्धि भी कम हुई है । इसका कारण मध्यकालीन इतिहास तो यह देता है कि मुसलमानोंके सांस्कृतिक आक्रमणोंने कई मन्दिर, मसजिद के रूप में परिवर्तित कर दिये, ऐसे मन्दिरोंकी संख्या सर्वाधिक गुजरात में पाई जाती है। महाकोसल में मैंने ऐसे भी जैन - मन्दिर देखे हैं जिनपर जैनों का आधिपत्य है ।
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इतिहास और जैनागम - साहित्यसे यह ज्ञात होता है कि ईस्वी पूर्व छठवीं शती में यक्ष-मन्दिरोंका सामूहिक प्रचलन था, परन्तु उन मन्दिरोंका उल्लेख “चैत्य” शब्दसे किया गया है । आज भी हम लोग " चैत्यालय" और “चैत्यवंदन" आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं । परन्तु यहाँ पर देखना यह है कि उन दिनों “चैत्य" शब्द, जिस अर्थ में व्यवहृत होता था, क्या आज भी हम उसी अर्थ में लेते है या त भिन्न । क्योंकि " चैत्य" शब्दकी व्युत्पत्ति "चिता" से मानी जाती है। महापुरुषोंके निर्वाण या दाहस्थानोंपर उनकी स्मृतिको सुरक्षित रखनेके लिए वृक्ष लगाये जाते थे या प्रस्तर- खण्ड तथा शरीर के अवशेष रखकर मढ़िया बना दी जाती थी ।
जबलपुर के निकट एक लघुतम पहाड़ीपर जैन चैत्यालय है, जिसे लोग “मढ़िया” कहते हैं। लोगों का विश्वास है कि रानी दुर्गावतीकी पीसनहारीने जो — जैन थी, स्वोपार्जित वित्तसे इस कृतिका सृजन करवाया था। दोनों मढ़ियोंपर आज भी चक्कीके दो पाट लगे हुए हैं,
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