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खण्डहरोंका वैभव
पटनाके दीवान बहादुर श्रीयुत राधाकृष्ण जालानके संग्रहमें सुरक्षित है। इसपर चतुर्दश स्वप्न और कलश उत्कीर्णित हैं । जैन-दृष्टिसे इस ओर . अन्वेषण अपेक्षित है। ___ उत्तरभारतीय जैनमूर्तिकलामें सामाजिक परिवर्तन और प्रान्तीय प्रभाव स्पष्ट है। उदाहरणार्थ महाकोसल और गुजरातको ही लें। महाकोसल और विन्ध्यप्रान्तकी जैन-मूर्तियाँ भावोंकी दृष्टि से एक-सी हैं, पर उनके परिकरोंमें दो तीन शताब्दी बाद काफी परिवर्तन होते रहे हैं । अष्टप्रातिहार्यके अतिरिक्त श्रावकोंकी जो मूर्तियाँ सम्मिलित होती गई, उनसे परिवर्तनकी कल्पना हो सकती है। कुषाणकालीन प्रभामंडल सादा था, गुप्तकाल में अलंकरणोंसे अलंकृत हो गया और गुप्तोत्तर कालमें तो वह पूरी तौरसे, इतना सज गया कि मूल प्रतिमा ही गौण हो गई । महाकोसल एवं तत्सन्निकटवर्ती प्रदेशोंके परिकरोंमें साँचीके प्रभावके साथ कलचुरियोंके समयकी मूर्तिकलामें व्यवहृत उपकरणोंका भी प्रभाव है । मेरा जहाँतक विश्वास है महाकोसलका परिकर बड़ा सफल और सजीव बन पड़ा है। इसके विकासमें सिंहासनके अाकारोंमें स्वतंत्रता और मौलिकता है । प्रभामंडल और छत्र भी अपने हैं । सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि कुछ मूर्तियाँ तेवर और बिलहरीमें ऐसी भी मिली हैं, जिनपर सम्पूर्ण शिखराकृति अामलक, कलशके भाव खुदे हैं। अपने आपमें वे मन्दिरका रूप लिये हुए हैं । एक और विशेषता है । इस अोर दिगम्बर जैनोंका प्राबल्य है। अत: बाहुबलीजी भी परिकरमें सम्मिलित हो गये हैं । तीर्थकरोंके जीवनकी मुख्य घटनाएँ भी आ जाती हैं । इसपर मैंने अन्यत्र विचार किया है ।
"बाँकुड़ा ज़िला तो बिल्कुल अछूता ही है जो श्रोरिसाकी सीमापर है। लाल पाषाणपर जैन अवशेष प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होते हैं। श्री राखालदास बनरजीने कुछ अन्वेषण किया था, पर वह प्रकाशित न हो सका । मुझे श्रीकेदार बाबू (सं० मोडर्न रिव्यू) ने यह सूचना दी थी।
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