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जैन -
- पुरातत्त्व
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धातुमूर्ति निर्माण कलाका केन्द्र कुर्किहार या नालिन्दा माना जाता रहा है । यहाँ बौद्ध संस्कृतिके उपकरणोंको कलाचार्यों द्वारा रूपदान दिया जाता था । यों भी बौद्धोंने, सापेक्षतः रूप- निर्माणकलामें पर्याप्त उन्नति की है। जब अनुकूल उपकरण मिल जायँ, तो फिर चाहिए ही क्या | चीनी पर्यटकों के यात्रा - विबरणों व तात्कालिक ग्रन्थस्थ उल्लेखों से सिद्ध होता है कि 'मगध' प्राचीन कालमें श्रमण परम्पराका महाकेन्द्र था । गुप्त-कालमें जैन-संस्कृति उन्नत रूपमें थी । यद्यपि इस कालकी शिल्पकृतियाँ श्राज मगध में कम उपलब्ध होती हैं, पर राजगृहकी विभिन्न टोकोंपर एवं पाँचवीं टोंक के भग्न जैन-मंदिरमें जो जैन - मूर्तियाँ उपलब्ध हैं, वे न केवल गुप्तकालीन मूर्तिकला में व्यवहृत अलंकरणोंसे विभूषित हैं, अपितु कुछ एक तो ऐसी भी हैं जिनकी तुलना गुप्तकालीन बौद्ध मूर्त्तियोंसे सरलतापूर्वक की जा सकती हैं। उन दिनों जैन धातु- मूर्तियों का निर्माण मगधमें हुआ था या नहीं ? यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, किन्तु पटना श्राश्वर्य गृह में जैन धातु-मूर्तियों का अच्छा-सा संग्रह सुरक्षित है । साथ ही एक धर्मचक्र भी है । इन कृतियोंपर लेखका प्रभाव होते हुए भी ये गुप्तोत्तर और गुप्त कालके मध्यकी रचनाएँ हैं । कारण कि मगधकी क्रमिक विकसित मूर्त्ति - परम्पराके अध्ययनकी स्पष्ट छाप है। उपर्युक्त संग्रह मगधसे ही प्राप्त किया गया है ।
भारत-कला-भवन (बनारस) में एक सुन्दर लघुतम जैन-धातु - मूर्ति देखी थी, जो मूलतः स्त्रर्णगिरी के भट्टारककी थी, जैसा कि कटनीके एक जैन तरुण द्वारा ज्ञात हुआ । यह गुप्तकालीन है ।
कुछ वर्ष पूर्व बड़ौदा राज्यान्तर्गत विजापुरके निकट महुडी ग्रामके कोट्यर्कजीके मन्दिर में खुदाईके समय चार अत्यन्त सुन्दर व कलापूर्ण जैन-धातु-प्रतिमाएँ, अन्य स्थापत्योंके साथ उपलब्ध हुई थीं । जिनमें से तीन तो बड़ौदा पुरातत्त्व विभागने अधिकृत कर लीं, एवं एक उसी मन्दिर के महंतके संरक्षण में हैं। सीमेंटसे दीवालमें जड़ दी गई है। इन चारों मूर्त्तियों
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