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जैन - पुरातत्त्व
यक्ष - मूर्तियों के निर्माणपर समाजने कम ध्यान दिया है । इसका एक कारण है । प्रत्येक मन्दिर में रक्षकका स्थान क्षेत्रपालका होता है और धिष्ठाताका स्वरूप जिनमूर्ति में तो रहता ही है । क्षेत्रपालकी उच्च कोटि की मूर्ति श्रवणबेलगोला में है । अन्यत्र तो केवल नालिकेरकी स्थापना करके सिन्दूर चढ़ाते जाते हैं ।
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श्रमण- स्मारक व प्रतिमाएँ
भारतीय धर्मका प्रत्येक सम्प्रदाय अपने आदरणीय महापुरुषोंका सम्मान कर, गौरवान्वित होता है । उनके स्वर्गवासके बाद पूज्य पुरुषों के प्रति अपनी हार्दिक भक्ति प्रदर्शनार्थ, या उनकी स्मृति रक्षार्थ, समाधियाँ, स्तूप या ऐसे ही अन्य स्मारक बनवाता है । उनका पूजन करता है । कथित स्मारक यों तो भारत में अगणित प्राप्त होते हैं, पर यहाँ तो श्रमणपरम्परासे सम्बद्ध स्मारकोंकी विवेचना ही अपेक्षित है ।
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आचार्य व अन्य मुनिवरोंके स्मारक के लिए, जैन साहित्य में इन शब्दों व्यवहार देखा जाता है, निसिदिया, निपदिका, निसीधि, निशिद्धि, निषिद्धि और निषिद्ध आदि शब्द एक ही भावको व्यक्त करते हैं । कहीं-कहीं ‘स्तूप' का व्यवहार भी इसी अर्थ में हुआ जान पड़ता है । मध्यकालीन जैनमुनियोंकी प्रशस्ति व निर्वाण- गीतों में 'धूम' 'थंभ' 'तूप' (घृत नहीं ) 'थंभउ' ये शब्द 'स्तूप' के ही पर्यायवाची हैं । १६ वीं शती तक इसका व्यवहार हुआ 1
शिलोत्कीर्ण लेख भी उपर्युक्त कोटिके स्मारकोंपर अच्छा प्रकाश
गजवाहनमष्टभुजं वरदपरशुशूलाभययुक्तदक्षिणपाणि बीजपूरकशक्तिमुद्गराक्षसूत्रयुक्तवामपाणि चेति" । वास्तुसार, पृ० १६० दिगम्बर जैन शास्त्रानुसार कुबेरका स्वरूप ऐसा होना चाहिए:'सफलकधनुर्दण्डपद्म खड्गप्रदर सुपाश्वरप्रदाष्टपाणिम् । गजगमनचतुर्मुखेन्द्र चापद्युतिकलशांकनतं यजे कुबेरम् ॥'
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