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खण्डहरोंका वैभव श्रवणबेलगोलाके जो लेख प्रकाशित हुए हैं, उनसे सिद्ध होता है कि वहाँ समाधिमरणसे संबंध रखनेवाले, मुनि आर्यिकाओं व श्रावकश्राविकाओंके लेखयुक्त कई स्मारक हैं। जिनमें सर्व प्राचीन समाधिमरणका लेख शक संवत् ५७२का है ।।
कण्ह मुनिकी मूर्ति मथुरामें पाई गयी है।
दशम शताब्दीके पूर्व के स्मारकोंकी संख्यामें अधिकतर चौतरे व चरणोंका ही समावेश होता है; धारवाड़ ज़िलेसे प्राप्त शिलालिपियोंसे ज्ञात होता है कि, उस ओर भी अहंतोंकी 'निषिदिकाएँ' बनती थीं। दक्षिण भारतका, जैन दृष्टि से अद्यावधि समुचित अध्ययन नहीं हुआ। यदाकदा जो सामग्री प्रकाशमें आ जाती है, उससे ज्ञात होता है कि वहाँ मुनियोंके स्मारक पर्याप्त रूपमें पाये जाते हैं। इनपर खुदे हुए लेख भी पाये जाते हैं। - ग्यारहवीं शताब्दीके बाद तो प्राचार्य व मुनियोंको स्वतन्त्र मूर्तियाँ बनने लगी थों । उपर्युक्त पंक्ति सूचक काल के बाद जिन जैनाश्रित मूर्ति कला विषयक ग्रन्थोंका निर्माण हुअा, उनमें प्राचार्य-मूर्ति निर्माण करके किंचित् प्रकाश डाला गया है। किन्तु पुरातन स्तूप प्रथाका सर्वथा लोप नहीं हुआ था। चौदहवीं सदीके आचार-दिनकर में प्राचार्य-मूर्ति प्रतिष्ठा विधान स्वतंत्र उल्लिखित है, चौदहवीं सदीके सुप्रसिद्ध विद्वान् ठक्कुर फेरूने ज्योतिषसार नामक ग्रन्थमें प्राचार्य-प्रतिष्ठाका मुहूर्त भी अलगसे दिया है। इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि ग्यारहवीं शताब्दीके बाद गुरु-मूत्तियोंका निर्माण ज़ोरोंपर था। प्राकृत भाषाके धुरंधर कवि व शास्त्र विख्याता परम तपस्वी श्री जिनवल्लभसूरि, अपभ्रंश साहित्यके मर्मज्ञ तथा सुप्रसिद्ध कवि श्री जिनदत्तसूरि, संस्कृत साहित्यकी सभी
दि जैनस्तूप एण्ड अदर एण्टीक्विटोज़ आफ मथुरा प्लेट XVII.
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