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जैन-पुरातत्व पाषागको अमर-मन्दिर बना दिया ।" इन गुफाओंका संशोधन निज़ाम स्टेटकी अोरसे हुआ है।
छोटेकैलाशकी गुफाएँ दक्षिण-पूर्व में हैं। इनका सृजन कैलाशसे टक्कर ले सकता है । एक परम्पराके शिल्पी दूसरी परम्पराका अनुकरण किस कुशलतासे करते हैं, उसका यह ज्वलन्त दृष्टान्त है। यहाँ के मंदिरमें द्राविड़ियन शैलीका प्रभाव है । यद्यपि मंदिरका शिखर नीचा है, परन्तु कार्य अपूर्ण प्रतीत होता है। कारण अज्ञात है। नवम शतीमें राष्ट्रकूटोंके विनाशके बाद द्राविड़-शैलीका प्रभाव उत्तर भारतमें नहीं मिलता। ____ “इन्द्र-सभा भी सामूहिक जैन-गुफाओंका नाम है । दो-दो मंज़िलवाली दो गुफाएँ और उपमंदिर भी सम्मिलित हैं। दक्षिणकी ओरसे इसमें प्रवेश कर सकते हैं। बाहर के पूर्व भागमें एक मंदिर है । उसके अग्र एवं पृष्ठ भागमें दो स्तंभ हैं। उत्तरकी अोर गुफाकी दीवालपर भगवान् पार्श्वनाथके जीवनको कमठवाली घटना उत्कीर्णित है । परिकर इतना सुन्दर बन पड़ा है कि देखते ही बनता है । भगवान् महावीर और मातंगयक्ष तथा अंबिका यक्षिणीका रूप भी विद्यमान है, और भी जैनाश्रित कलाकी विपुल सामग्री है। जगन्नाथसभा प्रेक्षणीय है। विशेष ज्ञातव्यके लिए जैन सत्य प्रकाश वर्ष ७ अंक ७ तथा एलोरानां गुफा मंदिरों एवं आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इंडिया आदि साहित्य
देखें।
एलोराकी प्रसिद्धि सत्रहवीं शतीमें भी खूब थी, जब कि आवागमनके साधनोंका प्रायः अभाव था। कविराज मेघविजयजीने औरंगाबादमें चातुर्मास बिताया था। उस समय अपने गुरुजीको एक समस्या पूर्तिमय विज्ञप्ति पत्र भेजा था, उसमें इलोराका वर्णन इन शब्दोंमें हैं
इत्येतस्मान्नगरयुगलाद् वीक्ष्य केलिस्थलं त्वम्, इलोरादौ सपदि विनमद् पावमीशं त्रिलोक्याः
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