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जैन-पुरातत्व
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सित्तनवासल'
दक्षिण भारतमें जैनसंस्कृतिका अच्छा प्रभुत्व है । वहाँके सांस्कृतिक और नैतिक विकासमें जैनोंका योग रहा है। सित्तन्नवासल पडुक्कोटासे वायव्य कोणमें नवें मीलपर अवस्थित है। यहाँ पर पाषाणके टीलोंकी गहराई में जैनगुफा उत्कीर्णित है । ईस्वी पूर्व तीसरी शतीका एक ब्राह्मी लेख भी उपलब्ध है । इसमें स्पष्ट उल्लेख है कि जैन-मुनियोंके वासार्थ इसका निर्माण किया गया। इन गुफाओंमें जैन-मुनियोंकी सात समाधि-शिलाएँ हैं । प्रत्येककी लम्बाई ६-४ फुट है । गुफा १००-५० फुट है।
वास्तुशास्त्रकी दृष्टि से इसका जितना महत्त्व है, उससे भी कहीं अधिक महत्त्व चित्रकलाकी दृष्टि से है। मंडोदक चित्र काफी अच्छे हैं। इनकी शैली अजण्टासे साम्य रखती है । इनकी रेखाओंके अनुशीलनसे मूर्तिकलापर भी बहुत प्रकाश पड़ता है। ___पल्लवकालीन चित्रकला की उच्चतम कृतियोंमें इनकी परिगणना है । कलाकारने प्राकृतिक दृश्योंको जो रूपदान दिया है, वह सचमुचमें अनुपम है । यद्यपि रूपदानमें कलाकारने बहुत कम रंगोंका प्रयोग किया है, फिर भी भावोंकी दृष्टि से आकृतियाँ सजीव बन गई हैं। कमलाकृति
और नतेकीके अतिरिक्त पौराणिक जैन प्रसंग भी चित्रित हैं। इसका निर्माण कलाविलासी महेन्द्र वर्माके समयमें हुआ। महेन्द्र वर्मा अप्परके उपदेशसे जैनधर्म स्वीकार कर चुका था, पर एक स्त्रीके प्रयत्नसे जब अप्पर शैव हुआ, तब वह भी शैव मतानुयायी हो गया।
'इसका मूल नाम "सिद्धण्ण-वास = सिद्धोंका डेरा” है,
भारतीय अनुशीलन, पृ० ७ २पल्लवोंकी चित्रकलाके लिए देखेंइंडियन एण्टीक्वेरी मार्च १९२३, | भारतीय अनुशीलन, पृ० ७-१६ ललितकला विभाग,
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