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जैन-पुरातत्त्व
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सुप्रसिद्ध पर्यटक और जैनमुनि श्रीशीलविजयजी भी अट्ठारहवीं शतीमें यहाँ आये थे। तीर्थमालाके निम्न पद्यसे ज्ञात होता है
इलोरि अति कौतुक वस्यूं जोतां हीयडु अति उल्हस्यूं, विश्वकरमा कीg मंडाण त्रिभुवन भाव तणु सहिनाण ॥
उपर्युक्त उल्लेख इस बातके परिचायक हैं कि जैनोंका आकर्षण इलोराकी अोर प्राचीन कालसे ही है । ऐहोल
बादामी तालुकेमें यह अवस्थित है । आर्यपुरसे इसका रूपान्तर ऐहोल या ऐविल्ल हुअा जान पड़ता है। ईस्वी सातवीं आठवीं शताब्दीमें यहाँपर चौलुक्योंकी राजधानी थी। पूर्व और उत्तर में यहाँपर गुफाएँ हैं । इसमें सहस्रफणयुक्त पार्श्वनाथको प्रतिमा अवस्थित है । यह मूर्ति बहुत महत्त्वपूर्ण है । सापेक्षतः यहाँकी गुफा काफ़ी चौड़ी और लम्बी है। जैन कलाके अन्य उपकरण भी पर्याप्त हैं।
प्रभु महावीरकी आकृति भी यहाँ दृष्टिगोचर होती है। सिंह, मकर एवं द्वारपालोंका खुदाव, उनका पहनाव एलीफण्टाके समान उच्च शैलीका है । वामन रूपिणी स्त्री तो बड़ी विचित्र-सी लगती है ।
यहाँसे पूर्वकी अोर मेगुटी नामक एक जैन-मन्दिर है, उसमेंसे एक विस्तृत शिलोत्कीर्णित लेख प्राप्त हुआ है, जो शक ५५६ ( ईस्वी ६३४६३५ ) का है। चौलुक्यराज पुलकेशीके समयमें श्रीवरकीर्तिने यहाँकी प्रतिष्ठा की जान पड़ती है। भाभेर
इन पंक्तियोंका लेखक इसे देख चुका है। भाभेरका दुर्ग धूलियासे
प्राचीन तीर्थमालासंग्रह, पृ० १२१ ।
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