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खण्डहरोंका वैभव एकड़ोंमें यह सीमित हो गया है। चीनी यात्रीका यह उल्लेख इस बातको सिद्ध करता है, न केवल उन दिनों पाटलिपुत्रमें जैनोंकी प्रचुरता ही थी, अपितु सार्वजनिक दृष्टि से इस स्तूपका महत्त्व पर्याप्त था । होना भी चाहिए । कारण कि स्थूलभद्र न केवल नन्दराजके प्रधान मंत्रीके पुत्र ही थे, अपितु मगधकी सांस्कृतिक लोकचेतनाके अन्यतम प्रतीक भी । जिस टीलेपर स्थूलभद्रको समाधि बनी हुई है उसके एक भागका अाजसे कुछ वर्ष पूर्व खनन हुआ था, तब तेरह हाथसे भी अधिक लम्बा मानव-अस्थिपिंजर निकला था । संभव है और भी ऐतिहासिक वस्तु निकली होंगी। गुप्त पूर्वकालीन ईटें तो आज भी पर्यातमात्रामें निकलती हैं । उन्हींपर तो यह स्थान टिका हुआ है । यूान चुके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी तक किसी भी व्यक्तिने इस स्थानका उल्लेख किया हो, ज्ञात नहीं। सत्रहवीं शतीके बाद जिन जैन-यात्री व मुनियोंका आवागमन इस प्रान्त में होता रहा, उनमें से कुछेक मुनियोंने अपनी यात्राको ऐतिहासिक दृष्टि से पद्योंमें लिपिबद्ध किया है । ऐतिहासिक दृष्टिसे इस प्रकारके वर्णनात्मक उल्लेखों का महत्त्व है । विजय सागर, जय विजय और सौभाग्य विजय ने अपनी तीर्थ मालाओं में स्थूलभद्र-स्तूपका उल्लेख किया है।
स्थूलभद्रके स्थानके निकट ही सुदर्शनश्रेष्ठ की समाधि भी
'प्रा० तीर्थ-माला, पृष्ठ ५। प्रा० तीर्थ-माला, पृष्ठ २३ । प्रा० तीर्थमाला, पृष्ठ ८० ।
अस्या सम्यग्दृशां निदर्शनं सुदर्शनश्रेष्ठो दधिवाहनभूपस्य राज्याऽभयाख्यया सम्भोगार्थमुपसर्यमाणः । क्षितिपतिवचसा वधार्थ नीतः स्वकीयनिष्कम्पशीलसम्पत्प्रभावाकृष्टशासनदेवता सान्निध्यात् शूली हैमसिंहासनतामनीत; तरिवारिं च निशितं सुरभिमुमनोदाम भूय मनोदामनयत्॥१०॥
विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ ६५-६६ ।
Aho! Shrutgyanam