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जैन-पुरातत्व अधिष्ठातृ है । जहाँतक मंत्रशास्त्रका प्रश्न है, पद्मावतीसे सम्बन्धित ही अधिक मन्त्र मिलते हैं। यंत्रमें भी इसीका साम्राज्य है। विन्ध्याचलमें इनकी गुफा है । विन्ध्यप्रदेशमें तो बड़ी विशाल प्रतिमाएँ मिलती हैं । इनके मंत्रकल्प भी कम नहीं हैं। इन देवियोंकी खड़ी और बैठी कई प्रकारकी मूर्तियाँ मिलती हैं। विजया, कालोकी भी मूर्तियाँ मिलती हैं । यों तो ज्वालामालिनीकी एक अत्यन्त मुन्दर मूर्ति मैंने आजसे ८ वर्ष पूर्व केलझरमें देखी थी, पर इनका प्रचार सीमित है। १६ विद्या देवियोंकी स्वतन्त्र मूर्तियाँ श्राबूके मधुच्छत्रमें मिली हैं । २४ शासन देवियोंकी सवाहन, सायुध और सामूहिक विशाल प्रतिमा प्रयागसंग्रहालयमें सुरक्षित है । जैनमूर्तिकलाके क्रमिक विकासपर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है।
देवियोंमें सरस्वतीकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जैन-संस्कृतिके अनुसार जिनवाणी ही सरस्वती है। जिनागम ही उसका मूर्तरूप है। पर मध्यकालमें जैन-दृष्टि से सरस्वतीकी मूर्तियाँ भी बनने लगी थीं। इनके परिकरमें तथा मस्तकपर जिनमूर्तियाँ उकेरी जाती थीं और उपकरण भी जैनाश्रित कलाके रहते थे। ऐसी मूर्तियोंमें बीकानेर-स्थित सरस्वती ( जो आजकल न्यू एशियन एण्टिक्केरियन म्यूज़ियम दिल्लीमें सुरक्षित है) मूर्तिकलाका उत्कृष्ट प्रतीक है । इतनी विशाल और मनोज्ञ देवीमूर्तियाँ कम ही मिलेंगी। यों तो पश्चिमभारतमें जैनाश्रित मूर्तिकलाकी परम्परामें
प्रतिमाएँ बहुत ही कम । वर्धा ज़िलेके सिन्दी ग्राममें दि० जैनमन्दिरमें एक अत्यन्त सुन्दर और कलापूर्ण पद्मावतीकी खड़ी प्रतिमा, भूरे पत्थरपर उत्कीर्णित है । मस्तकपर भगवान् पार्श्वनाथजी विराजमान हैं । यह अनुपम कलाकृति उपेक्षित अवस्थामें धूलमें ढंकी हुई है। इस प्रतिमाको बारहवीं शतीके आभूपणांका भंडार कहें तो अत्युक्ति न होगी।
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