________________
जैन - पुरातत्त्व
है । गुजरात में इसका बाहुल्य है । पन्ना, हीरा और पुखराजकी कई मूर्तियाँ मिलती हैं | श्रवणबेलगोला, कलकत्ता और बीकानेर में रत्नमूर्तियाँ मिलती हैं । भरत द्वारा रत्नमय बिम्ब अष्टापदपर बनवानेकी सूचना जैन साहित्य देता है । यक्ष-यक्षिणियोंकी मूर्तियाँ
७७
२४ तीर्थकर के २४ यक्ष और २४ यक्षिणियाँ रहती हैं । तीर्थकर प्रतिमा में दायें-बायें क्रमश: इनका अंकन रहता है । कुछेक प्रतिमा ऐसी भी पाई जा सकती हैं, जिनमें इनका अस्तित्व न भी हो, पर परिकर में तो ये अपरिहार्य हैं, महाकोसल में एक तोरण मुझे प्राप्त हुआ है, उसमें तीन तीर्थंकर प्रतिमानों के अतिरिक्त अन्य ५ यक्षिणियों की मूर्तियाँ हैं ।
इनका इतिहास भी कुषाण काल से प्रारम्भ होता है । उस युगकी प्रतिमानों में इनका अंकन तो है ही, पर उसी समय इनकी स्वतंत्र मूर्तियाँ भी बनती थीं । उन दिनों अंबिकादेवीका रूप व्यापक-सा जान पड़ता है । कारण कि नेमिनाथकी अधिष्ठातृ होने के बावजूद भी भगवान् युगादिदेवकी मूर्ति में यह अवश्य देखी जाती है । १३वीं शताब्दीतक ऋषभदेवकी मूर्तियों में इनका रूप खुदा हुआ पाया गया है, जब कि वहाँ होनी चाहिए चक्रेश्वरी । उस समय अंबिकाकी बनती थीं। मथुरा में ऐसी एक मूर्ति प्राप्त हुई है । मगधके राजगृह
सयक्ष मूर्तियाँ भी
उपर्युक्त दोनों लेख एक ही निर्माता और प्रतिष्ठापक से सम्बन्ध रखते हैं । अन्तर केवल इतना ही पड़ता है कि मूर्तिकी प्रतिष्ठा फाल्गुन में हुई और परिकर वैशाखमें बना । मूर्ति लघुतम होनेसे परिकर में निर्माताका पूरा परिचय आ जाता है । नडिआद और बड़ौदा के भिन्न उल्लेखों से ज्ञात होता है कि दोनों स्थानों पर निर्माताका व्यवसाय सम्बन्ध होगा । सूचित संवत् में भाचार्य श्रीका वहाँ गमन भी है ।
'जैन सत्यप्रकाशके पर्युषणांक में इसका चित्र प्रदर्शित है ।
Aho ! Shrutgyanam