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खण्डहरोंका वैभव
इनका भी निर्माण प्रचुर परिमाण में हुआ है । दक्षिण भारतके जैनोंने भी सरस्वतीको मूर्त रूप दिया था ।
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देवीमूर्तियाँ अधिकतर पहाड़ियों और गुफाओं में मिलती हैं, पर लोग सिन्दूर पोतकर उन्हें हतना विकृत कर देते हैं कि मौलिक तत्त्व ढँक जाता है। बकरे चढ़ाने लगते हैं । मैंने चांदवड़ में स्वयं देखा है । पासकी पहाड़ियों में एक गुफा में जैनमूर्तियाँ हैं, उनके आगे यह कुकृत्य १६३६ तक होता रहा ।
सापेक्षतः यक्ष प्रतिमाएँ कम मिलती हैं। क्षेत्रपाल और माणिभद्रकी कुछ मूर्तियाँ दृष्टिगत हुई हैं। यज्ञों में गोमुख, प्रमुख, यक्षराज, धरणेन्द्र, कुबेर, गोमेध, ब्रह्मशान्ति और पार्श्वयक्षकी प्रतिमाएँ स्वतन्त्र मिली हैं । पार्श्वयक्षको पहचाननेमें लोग अक्सर ग़लती कर बैठते हैं । कारण कि उनकी मुखाकृति, उदर, ग्रायुध गणेश के समान ही होते हैं । इन यक्षोंकी स्वतंत्र प्रतिमानों में उनका व्यक्तित्व झलकता है । परिकरान्तर्गत यक्ष मूर्ति इतनी संकुचित होती है कि यदि शिल्प-ग्रन्थोंके प्रकाशमें उन्हें देखें तो भ्रम हो जायगा । उदाहरणार्थ ऋषभदेवके यक्ष गौमुखको ही लें। कुछ मूर्तियो में तो ठीक रूप मिलेगा पर बहुसंख्यक ऐसी मिलेंगी कि उनकी मुखाकृति आयुध और वाहन कुछ भी शास्त्रीय उल्लेख से साम्य नहीं रखते । यहाँपर एक बातकी चर्चा कर देना उचित होगा । 'कुबेर' की प्रतिमा ऋषभदेवके परिकर में अक्सर रहती है, परन्तु वह कुबेर जैन - शिल्पका प्रतीत नहीं होता । कारण कि उसमें रत्नशैली, नकुल, फाँस एवं मोदक या सुरापात्र रहते हैं, जबकि जैन कुबेर चार मुख और आठ हाथोंवाला होता है ।
तिरुपत्तिकुनरम् ।
श्रीमहावीर स्मृति ग्रन्थ भा० १, पृ० १६२ ॥
तत्तीर्थोत्पन्नं कुबेरयक्षं चतुर्मुखमिन्द्रायुधवर्णं गरुड़वदनं ।
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