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खण्डहरोंका वैभव रत्नको मूर्तियाँ
श्रीसम्पन्न जैनसमाजने बहुमूल्य रत्नोंकी मूर्तियाँ भी बनवाई। किंवदन्तियोंको यदि सत्य मान लिया जाय तो रत्नोंकी मूर्तिका इतिहास सर्वप्राचीन सिद्ध होगा, पर ऐतिहासिक व्यक्तिके लिए यह मानना कम सम्भव है। इस विभागमें शाश्वता जिनबिम्बोंको छोड़ भी दिया जाय तो स्थंभनपार्श्वनाथकी प्रतिमा सर्वप्राचीन ठहरेगी। यह अभी स्तंभतीर्थ-खंभात में सुरक्षित है। इसका रत्न अाजतक नहीं पहचाना गया। इसके बाद भी उत्तर-गुप्तकालीन रत्नमूर्तियाँ महाकोसलके आरंग (जि. रायपुर )में उपलब्ध हुई हैं । आजक न रायपुरके जैनमंदिर में विद्यमान हैं । इनमें व्यवहृत रत्न सिरपुरकी मूर्तियोंकी जातिके हैं। इनकी मुखाकृति और रचनाकाल सिरपुरसे प्राप्त धातुमूर्तियोंके समान हैं। सोमवंशीय नरेशोंके समयको मानना उचित जान पड़ता हैं। मध्यकालमें स्फटिकरत्नकी मूर्तियाँ बहुत ही विशाल रूपमें बनती थीं। रत्नोंमें यही एक ऐसा रत्न है, जिसको शिलाएँ सापेक्षतः विशाल होती हैं । १७ वीं शताब्दीकी लेखयुक्त एक मूर्ति नासिकके जैन-मंदिर में
लेख इस प्रकार है
"संवत् १६६७ फागुण सुद ३ वटपद् (बड़ौदा) वासि सा० खीमजी सुपुत्र माणिकजीकेन श्रीअंतरिक्षपार्श्वनाथबिं का० प्र० तपा० श्रीविजयदेवसूरिभिः।” __ इस प्रतिमाके रजतमय सुन्दर परिकरपर भी इस प्रकार लेख खुदा है
__ "संवत् १६६७ व. वै० वदि २ दिने नडिआदिनगरवासि उसवालवृद्ध ज्ञातीय राघण गोत्रीय सा० खीमजी भा० बाई तुलजा कुक्षिसंभूत पुत्र सा० माणिकजी, मेघजीनामाभ्यां श्रीअन्तरिक्ष पार्श्वनाथपरिकर कारितः प्रतिष्ठित तपागच्छेश भट्टारक श्रीविजयदेवसूरि पादेः सूरीश महम्न प्रदत्ताचार्य पदप्रतिष्ठित श्रीविजयसिंहसूरिभिः।"
लेखकके "जैन धातु-प्रतिमा-लेख"से
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